श्रीमद् भागवत कथा हिंदी में

श्रीमद् भागवत कथा हिंदी में

अश्वत्थामा विक्षिप्तावस्था में वहाँ से भाग गया। जो ब्राह्मण का धर्म पालन नहीं करता, वह पूर्ण ब्राह्मण नहीं। रह जाता। मात्र जाति का ब्राह्मण रहता है। ब्राह्मण का तेज ही उसका प्राण होता है। ब्राह्मण के सिर के बाल को मुंडन करा देना, धन छीन लेना, स्थान से निकाल देना ही दण्ड है।
उसका अंग भंग नहीं करना चाहिए। अर्जुन ने अश्वत्थामा का तेज हरण कर लिया और उसे शिविर से बाहर निकाल दिया। इधर अब युद्ध समाप्त हो चुका था। युद्ध में मारे गये पुत्र-परिजनों के शोक में पांडव परिवार शोक मग्न हो गया।
कृष्ण भगवान् ने सबको समझाया। जो होना है, वही होगा। शोक नहीं करना चाहिए। फिर बाद में युधिष्ठिर ने राजगद्दी को स्वीकार किया। वह श्रीकृष्ण भगवान् धर्मराज युधिष्ठिर को सिंहासन पर बैठाकर द्वारका जाने की तैयारी कर रहे थे।
इधर अश्वत्थामा ने पांडव वंश के बीज का नाश करने के लिये उत्तरा के गर्भ में पल रहे बच्चे के उपर पुनः ब्रह्मास्त्र छोड़ दिया । उस गर्भ में पड़े बच्चे की रक्षा के लिए उत्तरा श्रीकृष्ण की गुहार करने लगी।
उसका आर्तनाद सुनकर योगमाया से कृष्ण भगवान् उसके गर्भ में प्रविष्ट हो गये और ब्रह्मास्त्र से दग्ध बच्चे की रक्षा करने लगे। वह दग्ध बच्चा भगवान् द्वारा रक्षित होने के कारण ही अपने स्वरूप को प्राप्त कर सका।
भगवान् ने सुदर्शन चक्र के समान तेज गति से गदा को घुमाकर गर्भ में उस बालक की रक्षा की थी। अश्वत्थामा के निवारणार्थ सभी पाण्डवों ने अपने-अपने बाण छोड़े। अर्जुन को ब्रह्मास्त्र छोड़ने में विलम्ब हो गया। अर्जुन को अपनी धनुर्विद्या पर अभिमान था।
अहंकार ही भगवान् का आहार होता है। अन्ततोगत्वा भगवान् ने सुदर्शन चक्र चलाकर अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र से पांडवों की रक्षा की। श्रीकृष्ण भगवान् ने भक्तवत्सलता में पांडवों की तथा उत्तरा के गर्भ में पड़े परीक्षित् की भी रक्षा की।

श्रीमद् भागवत कथा हिंदी में

शास्त्र में कहा गया है कि श्रीवैष्णवों के उपर चलाया गया कोई भी अस्त्र शस्त्र निष्फल हो जाता है। अन्यत्र ग्रन्थो में एक कथा है कि प्राचीन काल में भक्तिसार नामक एक साधु थे। (वे श्रीवैष्णव परम्परा के महात्मा थे।) वे भक्तिसार स्वामी जंगल में तपस्या कर रहे थे।
एक दिन शंकर जी पार्वती जी के साथ विमान पर जा रहे थे तो पार्वती जी ने देखा कि भक्तिसार स्वामी सूई से अपनी गुदड़ी सी रहे थे। आकाश मार्ग से जाते हुए श्री शंकरजी उनकी कुटिया के सामने से गुजर रहे थे तो अचानक शंकरजी का नन्दी रुक गया।
शंकरजी ने पूछा ‘रुके क्यों ? नन्दी ने बताया कि यहाँ एक संत हैं, जिनका प्रकाश चतुर्दिक फैला हुआ है। लेकिन वे गुदड़ी सी रहे हैं। पार्वती जी ने शंकरजी से उन संत को एक चादर देने को कहा जिससे जाड़ा, गर्मी, बरसात तीनों ऋतुओं में उनकी रक्षा हो सके। शंकरजी ने कहा कि कुछ देने पर महात्मा ने यदि इन्कार कर दिया तो दुःख होगा।
शंकरजी संत महाराज को शाल देने के लिए जाने पर तैयार नहीं थे। लेकिन श्रीपार्वती जी के हठ पर वे भक्तिसार स्वामी के आश्रम पर आये। श्रीभक्तिसार स्वामी ने नियमानुसार शंकरजी का सत्कार किया। शंकर जी ने भक्तिसार स्वामीजी से पूछा क्यों गुदड़ी सी रहे हैं ?
मैं एक चादर दे रहा हूँ, जो हर ऋतु में काम आयेगी। भक्तिसार स्वामी ने कहा मैं किसी से कुछ नहीं लेता शंकरजी ने पार्वतीजी देखो, वही हुआ जो मैं कह रहा था। शंकर जी ने भक्तिसार से कहा ‘चादर नहीं लेंगे तो मैं तीसरे नेत्र से आपको जला डालूँगा। भक्तिसार ने कहा भले ही जला डालें, मैं चादर नहीं लूँगा।
शंकर जी ने तीसरा नेत्र खोला। इधर श्री भक्तिसार स्वामी के चरणों से भी तेज निकलने लगा। दोनों के ताप से वातावरण जलने लगा। अन्य संतों ने शंकरजी से आकर अनुरोध किया तो शंकरजी ने अपना तीसरा नेत्र बंद किया और वहाँ से चले गये।
आखिर भक्तिसार स्वामीजी ने शंकरजी की चादर स्वीकार नहीं की। अतः श्री वैष्णवों के उपर अकारण चलाया गया कोई भी अस्त्र शस्त्र निष्फल हो जाता – – है।

इस तरह अश्वत्थामा द्वारा चलाया गया ब्रह्मास्त्र शान्त हो गया और किसी ने जाना भी नहीं। भगवान् की लीला कोई नहीं जानता। भक्तों को खेती, व्यापार नौकरी में अलौकिक ढंग से लाभ हो जाता है। यही भगवान् की अलौकिक कृपा है।

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इधर एक दिन श्रीकृष्ण भगवान् अब पुनः द्वारका जाने की तैयारी करते ह तो कुन्ती आ जाती हैं और भगवान् की स्तुति करती हैं। कुन्ती ने कहा कि हे भगवान्! आपने बड़ी-बड़ी विपत्तियों में मेरी रक्षा की है।

विष भरे मोदकों से, लाक्षागृह के दाह से, वन में मिले हिडिम्ब से, द्युत सभा से, वन में प्राप्त नाना प्रकार के कष्टों से, संग्राम में महारथियों के दिव्यास्त्रों से, दुर्योधन के अनेक षड्यंत्रों से, यहाँ तक कि अंत में अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र से भी आपने ही हमारी रक्षा की है। ऐसे प्रभु को मैं बार-बार प्रणाम करती हूँ।
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