श्रीमद् भागवत महापुराण संस्कृत हिंदी

श्रीमद् भागवत महापुराण संस्कृत हिंदी

उसी समय धर्मराज युधिष्ठीर ने भी श्रीभीष्माचार्य जी से शान्ति के लिए उपदेश देने का अनुरोध किया तो श्री भीष्माचार्य ने वर्णधर्म, आश्रमधर्म, भागवतधर्म, स्त्रीधर्म अनेक धर्म कहे। फिर भीष्माचार्य ने कहा कि हे पांडवों यह मनुष्य अपने किये हुये कर्मो को ही भोगता है।
अतः हे पांडवों! मैं तुम्हें एक प्राचीन कथा सुना रहा ह। वह प्राचीन कथा है कि प्राचीन काल में एक गौतमी नाम की साध्वी ब्राह्मणी के एकलौते पुत्र को सर्प ने डंस लिया था। वह ब्राह्मणी अपने पुत्र के शोक में रो रही थी।
उसी समय एक सँपेरे ने उस सर्प को पकड़कर पूछा कि तुने इस ब्राह्मणी के पुत्र को क्यों काटा ? सर्प ने कहा कि मैंने मृत्युदेव की आज्ञा से ऐसा किया। फिर मृत्यु देव ने कहा कि मैंने काल की आज्ञा से ऐसा किया।
फिर काल ने कहा कि मैंने यमराज की आज्ञा से ऐसा किया। फिर यमराज ने कहा कि मैंने चित्रगुप्त की आज्ञा से ऐसा किया, फिर चित्रगुप्त ने कहा कि मैंने जीवों के कर्म के कारण ऐसा किया। अतः कर्म ही जीव के सुख-दुःख आदि का कारण हैं मानव को अच्छा कर्म करना चाहिए एंव बुरे कर्म का त्याग करना चाहिए।
इस प्रकार अनेकों उपदेश धर्मराज को श्री भीष्माचार्य ने दिया। फिर श्री भीष्म जी युधिष्ठिर से कहते हैं कि हे युधिष्ठिर स्वयं को कर्ता मानकर क्यों व्याकुल हो ? “मैं” को छोड़ दो। बस, शान्ति आ जायेगी। भगवत् इच्छा के बिना एक पत्ता भी नहीं डोलता।
कर्तापन को भूल जाओ। तुम्हारा कोई सामर्थ्य नहीं है। अपने एक अंग को भी मनुष्य स्वयं नहीं बना सकता। गीता के उपदेश को स्मरण करो। अट्ठारह अक्षौहिणी सेना का संहार तुम नहीं कर सकते थे। यह सारी लीला ईश्वर की है।
अतः राजा को पाप नहीं करना चाहिये तथा देखना भी नहीं चाहिये एवं पापी का साथ भी नहीं देना चाहिये। इस उपदेश को सुनकर धर्मराज का संताप समाप्त हो जाता है। परंतु यह सुनकर द्रौपदी हँस पड़ी।
द्रौपदी ने जब पुछा कि हे दादा! आपने जानकर भी वह पाप क्यो किया तब भिष्माचार्य ने कहा हे बेटी ! पापी दुर्योधन के अन्न को खाने के कारण हमसे वह पाप हुआ कि पापी के साथ रहकर पाप देखते रहा फिर भी पाप रोक नही सका।

इधर उत्तरायण का समय आया तो भीष्म पितामह ने श्रीकृष्ण भगवान् के चतुर्भुज स्वरूप में ध्यानमग्न होकर मौन हो गये। उनकी सारी वासनायें नष्ट हो गयीं। वे शरीर को छोड़नेवाले हैं अतः उनके अन्त समय में भगवान् उनके सामने साक्षात् खड़े हैं।

वे स्तुति करते हैं कि हे भगवन्! आप लीला करने के लिए प्रकृति का आश्रय लिये हुए हैं मेरे पास आपको देने के लिए कुछ नहीं है। अपनी मति को आपके चरणों में समर्पित करता हूँ ताकि मेरा अनुराग आपमें बना रहे। इस प्रकार भीष्माचार्य ने ग्यारह श्लोकों से स्तति की।
“इति मतिरूप कल्पिता वितृष्णा भगवति सात्वत पूड़वे विभून्मि, 
स्वसुखमुपगते क्वचिद्विहर्तु-प्रकृति मुपेयुषि यद्भवप्रवाहः ।
१/६/३२ 
इस प्रकार भीष्म पितामह अपने अंत समय में श्रीकृष्ण भगवान् को साक्षात् खड़े पाकर उनके चतुर्भुज रूप की स्तुति करते हुए कहते हैं कि मैंने अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार युद्ध में बाणों की बौछार कर आपसे अस्त्र-शस्त्र उठवा लिया।
अर्जुन आपके संकल्प के विरुद्ध शस्त्र उठाते देख आपको पकड़ने लगा। भक्त का मान रहे, वैसी ही लीला आपने की। मेरे सामने आप भले ही चार भुजावाले रूप में खड़े हैं परन्तु युद्ध भूमि वाले स्वरूप से मेरा उद्धार करें।
हे भगवन्! आप कितने दयालु हैं कि जब अर्जुन का रथ हाँकते थे, तो घोड़ों की रास एवं चाबुक लिये थे, मैं उस स्वरूप का स्मरण कर रहा हूँ। “इस प्रकार श्रीभीष्म जी ने अपने मति रूपी पुत्री का विवाह श्रीकृष्ण रूपी पति से कर दिया यानी अपनी बुद्धि को श्रीकृष्ण को समर्पित करते हैं।

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उनकी वाणी अवरूद्ध हो जाती है एवं भीष्म जी के शरीर से ज्योति निकल कर श्रीकृष्ण भगवान् में लीन हो गयी। श्रीभीष्म उत्तरायण में अपना पार्थिव शरीर छोड़कर महाप्रयाण कर गये।
आकाश में दुंदुभी बजने लगी। ऋषि, मुनि, देवता सभी इस महाप्रयाण को देख रहे थे। धर्मराज बहुत दुःखी हो गये। इसके बाद धर्मराज ने भीष्म पितामह के पार्थिव शरीर का दाह-संस्कार एवं तर्पण किया।
इधर धर्मराज ने धृतराष्ट्र को भी सान्त्वना दी और उनके परामर्श से राजकाज चलाने लगे। इस कथा श्रवण से श्री, यश की वृद्धि होती है तथा श्री प्रभु में प्रेम होता है।

आगे फिर सूतजी ने कहा कि हे शौनकजी! वह भगवान् ने गर्भ में परीक्षित् की रक्षा कर पांडव वंश को अंकुरित किया तथा उन्होंने युधिष्ठिर का राज्याभिषेक किया जिससे उन्हें बहुत प्रसन्नता हुई।

युधिष्ठिर भीष्म के उपदेश एवं भगवान् की सम्मति से राज कार्य चलाने लगे। धर्मराज के राज्य में समय पर वर्षा होती थी। पृथ्वी धन-धान्य से समपन्न हो गयी। प्रजा में किसी तरह का कलह-क्लेश नहीं था। राज-काज सुचारू रूप से चलता था।
कृष्ण भगवान् भी कुछ समय तक हस्तिनापुर में रहकर राज काज का संचालन देखते रहे। इसके बाद वे द्वारका में जाने के लिए रथ पर बैठ गय। उन प्रभु को जाते देखकर वियोग से सारी प्रजा व्याकुल हो उठी। भगवान् ने सबको आश्वस्त किया।
जब वे जाने लगे तो अर्जुन ने छत्र धारण किया एवं सात्यकि तथा उद्धव चँवर लेकर भगवान के बगल में खड़े हो गये। इधर मार्ग में नगर की स्त्रियाँ पुष्प-वृष्टि करने लगीं। वे आपस में कहती हैं कि जो भगवान् निर्गुण हैं, वही सगुन होकर हम सभी को भाग्यवान बना गये।
इन्हीं भगवान के द्वारा संसार की रचना, पालन एवं संहार होता है। वेद इन्हीं के श्रीमुख से निकला है। योगिजन इन्हीं भगवान् का ध्यान करते हैं। जब दुष्ट राजाओं की वृद्धि हो जाती है, तो वे ही स्वयं अवतार लेकर उनका नाश करते हैं और धर्म की रक्षा करते हैं यथा’-
अहो अलं श्लाघ्यतमं यदोः कुलमहो अलं पुण्यतमं मधोर्वनम्, 
यदेष पुंसामृषभः श्रियः पतिः स्वजन्मना चङ्क्रमणेन चाञ्चति।
श्रीमद्भा० १/१०/२६

अर्थात वह यदुओं का कुल प्रशंसनीय बन गया है। मथुरा पुण्यतमा हो गयी है। भगवान् ने स्वयं जन्म लेकर कीर्ति बढ़ा दी है। द्वारका ने स्वर्ग को भी मात कर दिया है और भारतभूमि की पुण्य कीर्ति बढ़ गयी है।
श्रीकृष्ण भगवान् सभी नर-नारियों का मार्ग में अभिनन्दन एवं पूजा ग्रहण करते हुए सायंकाल द्वारका के पास पहुँचते हैं तो उनके चरणों में सभी प्रणाम निवेदित करते हैं। द्वारका को बंदनवार, पताका से सजाया गया है।
मार्ग को, भवनों को, झुरमुटों को खूब सजाया गया है। श्रीकृष्ण अपनी द्वारकापुरी को देखकर प्रसन्न हो रहे हैं। श्री वसुदेवजी, अक्रूर के साथ एक गजेन्द्र को लेकर श्रीकृष्ण के स्वागत के लिए आगे बढ़ते हैं।
श्रीकृष्ण उन दोनों महानुभावों का चरण स्पर्श करते हुए मार्ग में सबको देखते सत्कार ग्रहण करते हुए राजभवन के निकट पहुँचकर सबसे स्नेह से मिलते हैं। अपने साथ चलनेवाले लोगों को महल के पास जाकर सम्मानपूर्वक विदा करते हैं।
प्रभु श्रीकृष्ण माता-पिता का चरण स्पर्श करते हैं तथा उसके बाद भगवान् अपनी पत्नियों से मिलते हैं।
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