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भागवत पुराण कथा भाग-13
व्यासजी ने श्री नारद जी के द्वारा कही गयी भागवतकथा का स्मरण कर श्रीमद् भागवत महापुराण की रचना की। अठारह हजार श्लोक वाली श्रीमद् भागवत कथा की रचना करके सबसे पहले श्रीशुकदेव जी को पढ़ाया।
शौनक जी महर्षि वेदव्यास जी ने इस सात्वत संहिता की रचना की तो विचार करने लगे कि इसका उत्तम अधिकारी कौन है उस समय उन्हें अपने पुत्र परमवीत राग श्री सुखदेव जी का स्मरण आया उन्होंने अपने शिष्यों को भागवत के कुछ श्लोक याद कराएं वे व्यास शिष्य वन मे जाते तो भागवत के श्लोकों का गान करते एक दिन वे उसी वन में पहुंचे जहां श्री सुखदेव जी ध्यान में बैठे हुए थे एक शिष्य के मुख से निकला श्लोक ।
बर्हापीडं नटवर वपुः कर्णयोः कर्णिकारं बिभ्रद् वासः कनककपिशं वैजयन्तीं च मालाम् ।
रन्ध्रान् वेणोरधरसुधया पूरयन् गोपवृन्दै र्वृन्दारण्यं स्वपदरमणं प्राविशद् गीतकीर्तिः ।।
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भगवान श्री कृष्ण ने अपने सिर पर मयूर का पिछ धारण कर रखा है श्रेष्ठ नेट के समान उनका सुंदर वेश है कान में कनेर का पुष्प शरीर में पीतांबर और गले में एक वनमाला शोभायमान हो रही है अपने चरण कमलों से वृंदावन को पवित्र करते हुए भगवान श्री कृष्ण ग्वाल बालों के साथ वन में प्रवेश कर रहे हैं ग्वाल-बाल भगवान के कीर्ति का गान कर रहे हैं श्री सुखदेव जी ने भगवान श्री कृष्ण के स्वरूप का इतना दिन में वर्णन सुना तो उनका ध्यान टूट गया खड़े होने वाले थे कि मन में विचार आ गया कि जो स्वरूप वान होते हैं उन्हें अपने रुप का बहुत अभिमान होता है इसी समय व्यास जी के दूसरे शिष्य ने दूसरा श्लोक सुनाया।
अहो बकीं यं स्तनकाल कूटं जिघांसयापाययदप्य साध्वी ।
लेभे गतिं धात्र्युचितां ततोन्यं क वा दयालुं शरणं व्रजेम ।।
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इस श्लोक में भगवान के स्वभाव का वर्णन किया गया है अहा बक दैत्य की बहन व की पूतना श्री कृष्ण को मारने की इच्छा से अपने स्तनों में कालकूट जहर लगा कर आई थी परंतु भगवान की करुणा कृपा तो देखो उसे भी माता की गति प्रदान कर दी ऐसे श्री कृष्ण को छोड़ कर हम किसकी शरण ग्रहण करें श्री सुखदेव जी ने जैसे ही श्री कृष्ण के स्वभाव का वर्णन सुना उठ खड़े हुए कहा आप लोग बहुत अच्छे श्लोक सुना रहे हो और सुनाओ व्यास शिष्यों ने कहा हमें तो इतना ही आता है यदि आपको और सुनने की इच्छा है तो हमारे गुरुदेव के पास चलो उनके पास ऐसे 18000 श्लोक हैं सुखदेव जी ने कहा आप के गुरु कौन हैं शिस्यो ने कहा हमारे गुरु वेद व्यास जी हैं श्री सुखदेव जी ने जैसे ही है सुना सुखदेव जी प्रसन्न हो गए और कहने लगे अरे वो तो हमारे पिताजी हैं और चल पड़े अपने पिता श्री वेदव्यास जी के पास और भागवत महापुराण का अध्ययन किया—
आत्मारामाश्च मुनयो निर्गन्था अप्युरुक्रमे । कुर्वन्त्यहैतुकीं भक्तिमित्थम्भूतगुणो हरिः ।।
सौनक् जी भगवान श्री हरि के गुण ही ऐसे हैं कि जो आत्माराम है जिनकी अविद्या की गांठ खुल गई है वह भी भगवान श्रीहरि की निष्काम भक्ति करते हैं सुखदेव जी ने इस भागवत संहिता का अध्ययन कर उसे राजा परीक्षित को सुनाया सौनक जी पूछते राजा परीक्षित ने इस श्रीमद् भागवत का श्रवण कहां और किस कारण से किया शौनक जी ने इस प्रकार जब पूछा तो सूत जी राजा परीक्षित के जन्म की कथा सुनाना प्रारंभ करते हैं !
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श्रीसूतजी ने शानक जी से कहा कि हे शौनकजी! अब आगे वह राजा परीक्षित के जन्म, कर्म और उनकी मुक्ति तथा पाण्डवों के महाप्रस्थान की कथा सुनें, जिससे आपके प्रश्नों का समाधान हो जायेगा। उस महाभारत में भगवान् स्वयं अर्जुन का रथ हॉकने वाले बने थे क्योंकि रथ हाँकने वाला समझदार होगा तभी महारथी का कल्याण होगा। अतः प्रभु श्रीकृष्ण ने अर्जुन के रथ को हाँका तथा उस महाभारत संग्राम में पाण्डवों को विजयी दिलायी।
यदा मृधे कौरवसृञ्जयानां वीरेष्वथो वीरगतिं गतेषु ।
वृकोदराविद्ध गदाभिमर्श भग्नोरूदण्डे धृतराष्ट्र पुत्रे ।।
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महाभारत युद्ध में कौरव और पांडवों के पक्ष के अनेकों वीर वीरगति को प्राप्त हो गए और भीमसेन के प्रचंड गदा के प्रहार से दुर्योधन की जंघा भग्न हो गई दुर्योधन कुरुक्षेत्र की समरांगण में अधमरा पड़ा-पड़ा कराह रहा था उस समय अश्वत्थामा उसके पास आया कहा मित्र यदि तुम चाहो तो मैं अकेला ही तुम्हारे भाइयों की मृत्यु का बदला पांडवों से ले सकता हूं अश्वत्थामा के इस प्रकार कहने पर दुर्योधन ने अपने रक्त से अश्वत्थामा का तिलक कर दिया जिससे अश्वत्थामा की बुद्धि बिगड़ गई वह रात्रि में एक वृक्ष के नीचे बैठकर विचार करने लगा पांडवों को कैसे मारूं उसी समय उसने देखा एक उल्लू सोते हुए कौये के घोसले में घुसकर उन्हें मार रहा है यहीं से शिक्षा प्राप्त कर अश्वत्थामा हाथ में तलवार ले रात्रि में ही पांडवों को मारने के लिए निकल पड़ा-
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यहां भगवान श्री कृष्ण ने पांडवों से कहा विजय की रात्रि शयन नहीं जागरण करना चाहिए भजन सत्संग करना चाहिए भगवान श्री कृष्ण की बात मान पांडव भजन सत्संग के लिए शिविर से बाहर निकल आए पांडवों के स्थान पर द्रोपती के पांच पुत्र प्रतिदिम्भ.श्रुतसेन. श्रुतकीर्ति शतानीक और श्रुतकर्मा सो रहे हैं जो देखने में बिल्कुल पांडवों की तरह ही लगते हैं।
अश्वत्थामा ने उन्हें पांडव समझकर सोते हुए उनका सिर काट ले गया और दुर्योधन को भेंट किया दुर्योधन ने मृत पांडवों को देखा अत्यंत प्रसन्न हुआ परंतु जब चंद्रमा के प्रकाश में पास से पांडवों को सिर देखा समझ गया पांडव नहीं उनके पुत्र हैं अश्वत्थामा से कहा तुमने तो हमारा वंश ही नाश कर दिया दुर्योधन अत्यंत बेदना से पीड़ित हुआ उसे वरदान था जीवन में के साथ अत्यंत हर्ष और शोक होगा वही तुम्हारी मृत्यु का कारण होगा आज दुर्योधन का हर्ष और शोक के कारण प्राणांत हो गया यह अश्वत्थामा को जब यह मालूम हुआ पांडव जीवित है अब वे मुझे नहीं छोड़ेंगे तब भयभीत हो अश्वत्थामा वहां से भागा।
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माता शिशूनां निधनं सुतानां निशम्य घोरं परितप्यमाना ।
तदारूदद्वाष्प कलाकुलाक्षी तां सान्त्वयन्नाह किरीट माली ।।
यहां प्रातः काल द्रोपती ने अपने पुत्रों की मृत्यु का समाचार सुना अत्यंत दुखी हो गई विलाप करने लगी । अर्जुन ने कहा द्रोपती शोक मत करो जिस आतताई अधम ब्राह्मण ने तुम्हारे पुत्रों का वध किया है उसका सिर काट कर तुम्हें भेंट करूंगा तब तुम्हारे आंसू पोछूंगा। ऐसा कहा अर्जुन ने श्रीकृष्ण को सारथी बनाया और रथ में बैठ अश्वत्थामा का पीछा किया बचने हेतु अश्वत्थामा रथ पर सवार होकर भागा ।
अन्ततः अश्वत्थामा के घोड़े थक गये। ऐसी स्थिति में उसने अर्जुन पर ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया। अर्जुन ने भी ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया। दोनों ब्रह्मास्त्र टकरा गये। प्रलय-सा दृश्य हो गया। चारों ओर हाहाकार मच गया।
भगवान् के आदेश से अर्जुन ने अपने ब्रह्मास्त्र को खींचकर शान्त किया और अश्वत्थामा को पकडकर रस्सी में बाँधकर अर्जुन अपने डेरे में ले आये। अर्जुन ने गुरुपुत्र जानकर उस समय उस अश्वत्थामा की हत्या नहीं की। वह अश्वत्थामा को बँधी अवस्था में देखकर द्रौपदी को दया आ गयी।
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उसने कहा कि इसे छोड़ दें, छोड़ दें । आखिर यह गुरु पुत्र है। द्रौपदी ने अश्वत्थामा द्वारा इस तरह का जघन्य बाल वध करने पर भी उसे प्रणाम किया। द्रौपदी ने अर्जुन से कहा कि पूज्य गुरु ने ही आपको धनुर्विद्या सिखायी, सम्पूर्ण शस्त्रों का ज्ञान दिया। अश्वत्थामा साक्षात् द्रोणाचार्य के रूप में विद्यमान हैं मैं तो स्वयं पुत्र शोक में रो रही हूँ।
अब इसकी माता को पुत्र शोक न दें। द्रौपदी अपने पुत्रों की हत्या करनेवाले पर भी दया कर क्षमा की याचना कर रही है। यह उसकी महानता का उत्कर्ष है। द्रौपदी का चरत्रि जाज्वल्यमान नक्षत्र की भाँति मानव इतिहास में प्रदीप्त है। युधिष्ठिर आदि लोगों ने भी द्रौपदी के विचारों की पुष्टि की। लेकिन, भीम इसे सहन नहीं कर पाये।
वे बोले कि इस दुष्ट की हत्या करना ही श्रेयस्कर है। भीम अश्वत्थामा को मारने चले। द्रौपदी उसे बचाने चली। उस समय कृष्ण भगवान् ने चार भुजा धारण करके दो भुजाओं से भीम को तथा दो भुजाओं से द्रौपदी को रोका। अश्वत्थामा बीच में हैं अर्जुन ने कहा कि पहले तो आपने इसे मारने को कहा और अब इसे बचा रहे हैं।
भगवान् कृष्ण ने कहा गुरुपुत्र तथा ब्राह्मण वध के योग्य नहीं होते। लेकिन शस्त्रधारी एवं आततायी वध के योग्य होते हैं। ये दोनों बातें मैंने ही कही है। इसका यथा योग्य पालन करो। प्राण दण्ड कई प्रकार के होते हैं। तुम्हें द्रौपदी से किये वादे का भी ख्याल रखना है तथा द्रौपदी के भी वचनों को याद रखना है।
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यदि द्रौपदी कह रही है कि
“मुच्यताम् मुच्यतामेष ब्राह्मणो नितरां गुरुः ।”
इसे छोड़ दो क्योंकि यह गुरुपुत्र है। इधर भगवान् कहते हैं कि हे अर्जुन !
“ब्रह्म – बन्धुर्न हन्तव्य आततायी वधार्हणः मयैवोभयमाम्नातं परिपायनुशासनम् ।”
ब्राह्मण एवं बन्धु की हत्या नहीं करनी चाहिए परन्तु शस्त्रधारी आततायी का वध अवश्य करना चाहिए । शास्त्र में यह भी है –
“वपनं द्रविणादानं स्थानान्निर्यापणम् तथा एषहि ब्रह्मबन्धूनां वघो नान्योऽस्ति दैहिकः ।‘
ब्राह्मण एवं बन्धु के प्राणवध का मतलब उसका सिर के बाल मूँड़ देना पद छीन लेना, स्थान से या घर आदि से बाहर कर देना यही वध है। यानी शरीर द्वारा वध नहीं करना चाहिए, परन्तु हे अर्जुन! तुमने अश्वत्थामा का सिर लाकर द्रौपदी को देने को कहा था। कुछ ऐसा करो कि तुम्हारी और भीम दोनों की बात रह जाय । अर्जुन सरल स्वभाव के थे। वे भगवान् की बात समझ गये। उन्होंने केश सहित अश्वत्थामा की मणि को उसके सिर से निकाल लिया और द्रौपदी के पास रख दिया एवं उस अश्वत्थामा को उस शिविर से बाहर कर दिया।