Shrimad Bhagwat Katha PDF in Hindi
भागवत पुराण कथा भाग-18
धर्मराज अत्यधिक चिन्तित हो गये। सोचने लगे अर्जुन अबतक क्यों नहीं आये। “श्री धर्मराज भीम से कहते हैं कि हे भीमजी! वाम अंग फड़क रहा है। हृदय में बिना रोग का कम्पन हो रहा है। लगता है कि काल हमलोगों के विपरीत होनेवाले है।
कौवा अनायास शरीर पर बैठकर मृत्यु की सूचना दे रहा है। जब भी बाहर निकलता हूँ तो कुत्ते रोने लगते हैं लगता है कोई अनिष्ट हो गया है या होनेवाला है। ऊल्लू भी दिन में भयावह ढंग से बोल रहा है।
तेल, घी, जल, दर्पण में अपनी छाया नहीं दिखाई देती और दिखाई देती तो केवल सिर की छाया दिखाई दे रही है। सूर्य की कान्ति मलिन हो । गयी है। ग्रह आपस में टकरा रहे हैं। अनायास आँधी आ रही है।
अकारण आकाश से वज्रपात हो रहे हैं। बिना कारण के भूकम्प हो रहे हैं अग्नि में घी डालने पर बुझ जाती है। बछड़े अच्छी तरह दूध नहीं पीते गायों की आँखों से आँसू गिर रहे हैं। नदियों में असमय बाढ़ आ रही है।
Shrimad Bhagwat Katha PDF in Hindi
मनुष्यों में विकृति आ गयी हैं देव प्रतिमायें उदास हैं वे अनायास बार-बार गिर जा रही हैं। नगर सुनसान लग रहा है। चारों तरफ भयंकर दृश्य दिखायी दे रहा है। मालूम नहीं कि क्या अनिष्ट होनेवाला है या हो चुका है ? क्या कहीं धरती भगवान् के श्री चरणों से बिछुड़ तो नहीं गयी ? श्रीकृष्ण भगवान् कहीं धरती तो नहीं छोड़ गये ? यह पृथ्वी उदास हो गयी है।”
यह घटना महाभारत युद्ध के पैंतीस वर्ष समाप्त होने एवं छत्तीसवें वर्ष के प्रारम्भ में ही हुई। उसी समय अर्जुन द्वारका से लौटकर आते हैं। उन्होंने धर्मराज के चरणों में प्रणाम किया । धर्मराज ने अर्जुन को श्रीहीन देखा। अर्जुन मौन हैं। धर्मराज उनसे पूछते हैं – कच्चिदानर्तपुर्यां नः स्वजनाः सुखमासते ।
द्वारका में यदुवंशी तथा कृष्ण हैं अपने परिवार के साथ अच्छी तरह हैं न ? तुम निस्तेज क्यों हो गये हो ? क्या द्वारका के लोगों ने वहाँ जाने पर तुम्हें अपमानित किया है ? या कहीं पराजित तो नहीं हो गये हो ?
कोई कुवाच्य तो नहीं बोल दिया है ? क्या याचकों को कुछ देने की बात कहकर मुकर गये हो ? कहीं ब्राह्मण या बालक की रक्षा से विमुख तो नहीं हो गये हो ? क्या किसी शरणागत की रक्षा नहीं कर पाये हो ? क्या कहीं ब्राह्मण वृद्ध या बालक अतिथि को बिना खिलाये ही स्वयं भोजन कर लिये हो ? क्या कामासक्त होकर किसी अगम्या नारी से गमन का अपराध तो नहीं कर दिये हो ? लगता है कि कोई न कोई निन्दित कर्म कर बैठे हो । इसलिए निस्तेज हो गये हो ।
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कच्चित् प्रेष्ठतमेनाथ हृदयेनात्मबन्धुना । शून्योस्मि रहितो नित्यं मन्यसे तेन्यथानरुक ।।
हो ना हो अर्जुन जिसे तुम अपना प्रियतम परम हितैषी समझते थे उन्हीं श्रीकृष्ण से तुम रहित हो गए हो । इसके अलावा तुम्हारे दुख का कोई दूसरा कारण नहीं हो सकता जब धर्मराज युधिष्ठिर की इस प्रकार बात सुने तो अर्जुन ने अपने आंसुओं को पोंछा और रूधें हुए गले से गदगद वाणी में कहा….
वञ्चितोहं महाराज हरिणा बन्धुरूपिणा । येन मेपहतं तेजो देवविस्मापनं महत् ।।
भैया भगवान श्री कृष्ण ने मित्र का रूप धारण कर मुझे ठग लिया जिन श्री कृष्ण की कृपा से मैंने राजा द्रुपद के स्वयंवर में मत्स्य भेद कर द्रोपती को प्राप्त किया था। इंद्र पर विजय प्राप्त कर अग्नि को खांडव वन प्रदान किया और मैदानव से इंद्रप्रस्थ सभा को प्राप्त किया जिनकी कृपा से युद्ध में मैं भगवान शंकर को आश्चर्य में डाल पाशुप अस्त्र प्राप्त किया उन्हीं श्री कृष्ण से मैं रहित हो गया द्वारिका से श्री कृष्ण की पत्नियों को ला रहा था मार्ग में भीलों ने मुझे अबला की भांति परास्त कर दिया ।
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तद्वै धनुष्त इषवः स रथो हयास्ते सोहं रथी नृपतयो यत आनमन्ति ।
सर्वं क्षणेन तदभूदसदीशरिक्तं भस्मन् हुतं कुहकराद्धमिवोप्तमूष्याम् ।।
यह मेरा वही गांडीव धनुष है वही बांण वही रथ वही घोड़े और वही रथी मैं अर्जुन हूं ।जिसके सामने बड़े-बड़े दिग्विजयी राजा सिर झुकाया करते थे परंतु श्री कृष्ण के ना रहने पर सब शक्तिहीन हो गए हैं ।
मनुज बली नहीं होत है समय होत बलवान ।
भीलन लूटी गोपिका वही अर्जुन वही बाण ।।
महाराज सभी द्वारिका वासी ब्राह्मणों के श्राप से मोहग्रस्त हो वारुणी मदिरा पीकर आपस में लड़ झगड़ कर मर गए मात्र चार पांच ही शेष बचे हैं माता कुंती ने जैसे ही श्री कृष्ण के स्वधाम गमन की बात सुनी वही अपने प्राणों को त्याग दिया ।पांडवों ने परीक्षित को राज्य सौंपा और चीर वत्कल धारण कर स्वर्गारोहण कर भगवान को प्राप्त कर लिया ।
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पांडवों के महाप्रयाण के बाद राजा परीक्षित् ब्राह्मणों की आज्ञा से पृथ्वी का पालन करने लगे एव उत्तर की पुत्री इरावती के साथ उनका विवाह हुआ। उससे एक पुत्र हुआ, जिसका नाम जनमेजय रखा गया। राजा परीक्षित् को कुल चार पुत्र हुए, जिनमें जनमेजय सबसे बड़े थे। राज परीक्षित् ने गंगा नदी के तट पर कृपाचार्य के आचार्यत्व में तीन अश्वमेघ यज्ञ किये । ‘भावमिच्छन्ति देवता’ से आह्वान करने पर हमारे पूजा-द्रव्य को भगवान् तथा देवता स्वीकार कर लेते हैं।
भ्रमर फूलों कैसे लेता है, हम नहीं देखते। लेकिन भ्रमर द्वारा तैयार मधु जरुर देखते हैं। उसी तरह भाव से समर्पित पूजा की सामग्री का रस भगवान् ले लेते हैं। देवता या पितर को जो कुछ भी समर्पित किया जाता है, पूजा सामग्री के रस को सूर्य, अग्नि तथा वायु जिस योनि में देवता या पितर होते हैं, उनके पास पहुँचा देते हैं।
राजा परीक्षित के अश्वमेघ यज्ञ में सभी देवताओं ने सशरीर उपस्थित होकर अपना-अपना अंश ग्रहण किया था। वह भगवान श्रीकृष्ण के अपने नित्य धाम जाते ही कलियुग का पृथ्वी पर आगमन हो गया । अपने राज्य में कलि का प्रवेश सुनकर राजा परीक्षित् दिग्विजय के लिए निकल पड़े।
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थोड़ी दूर पर उन्होंने एक बड़ी आश्चर्यजनक घटना देखी कि एक बैल यानि वृषभ रूपधारी धर्म एक पैर से चल रहा था और उसके तीनों पैर बेकार हो गये थे। उसी समय गौ रूप धारण कर पृथ्वी रो रही थी तो उस वृषभ रूपी धर्म ने रोती हुई गौ से पूछा कि आप दुःखी क्यों हैं ? आपका मुख मलिन क्यों हो गया है ?
क्या आपका कोई बन्धु दूर चला गया है ? क्या उसी का शोक कर रही हो या मेरी दशा देखकर दुःखी हो रही हो या दुष्ट राजाओं के अत्याचार से दुःखी हो अथवा इधर उधर सबके हाथ का जलपान तथा भोजन करनेवाले कामिनी कांचन लोलुप जीवों का शोक कर रही हो? अथवा भगवान् इसलोक को छोड़कर चले गये, उनके गुणो का स्मरण कर दुःखी हो रही हो?
यह सुनकर गौ रूपधारिणी पृथ्वी ने कहा कि आप सब कुछ जानते हुए भी अनजान के सदृश पूछ रहे हैं। जो आप पूछ रहे हैं, वही स्थिति है। गाय रूपी पृथ्वी ने धर्म से पूछा कि आपके तीन पैर किसने काट डाले ?
आपको एक पैर पर खड़े देखकर आपके बारे में मैं शोक-मग्न हूँ। क्या परमात्मा आप पर दया नहीं करते ? पतित, ” धर्म–कर्म शून्य राजा ही अब इस धरती का उपभोग करेंगे, इसलिए शोकातुर हूँ।
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धर्म और पृथ्वी को छोड़कर कृष्ण भगवान् चले गये। सत्य, शौच, दया, शान्ति आदि अनन्त कल्याणकारी गुण निवास करते थे, उन भगवान् से रहित, कलि से आक्रान्त होकर इस लोक में शोक कर रही हूँ। देवता, पितर, ऋषि, साधु, वर्ण एवं आश्रमों के बारे में शोक कर रही हूँ।
मुझे और आपको छोड़कर श्रीकृष्ण चले. गये, उनके वियोग से हृदय में जिन प्रभु में शान्ति नहीं है। क्या करूँ, कहाँ जाऊँ, किससे अपना कष्ट कहूँ ? इस प्रकार वृषभ रूप धर्म तथा गाय रूप पृथ्वी बातें कर रहे थे। उसी समय राजा परीक्षित् आ गये तो राजा परीक्षित् ने देखा कि सरस्वती नदी के तट पर गाय और वृषभ को कलि द्वारा पीटा जा रहा है।
राजा परीक्षित् ने कलि के पूछा कि तुम चांडालवेष में वृषभ एवं गाय को क्यों पीट रहे हो ? कलि के भय से वह वृषभ थोड़ा-थोड़ा मूत्र गिराते आगे बढ़ रहा था और काँप रहा था । शूद्र चांडाल वेषधारी कलि गोमाता के उपर लात से प्रहार कर रहा था । गाय रो रही थी। खाने को भूसा भी नहीं देता था । कलि तो राजा का वेष बनाये दोनों को पीटते हुए ले जा रहा था। धर्म की जो रक्षा करता है, उसकी रक्षा धर्म करता है।
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जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी । सो नृप अवस नरक अधिकारी ।।
राजा परीक्षित् ने कड़े स्वर में कहा अरे दृष्ट! तुम कौन हो जो वृषभ और गो माता को पीट रहे हो ? धर्म रूपी वृषभ ने कहा पीटते हुए हाँक रहा है। मैं धर्म हूँ और यह पृथ्वी है।
राजा परीक्षित् ने वृषभ रूपी धर्म से पूछा कि तुम्हारे तीन पैर किसने काटे ? राजा की वाणी सुनकर वृषभ रूपधारी धर्म ने कहा ‘हे पुरूष श्रेष्ठ ! आप पांडवों के वंशज हैं, जिन्होंने पहले धर्म की रक्षा की थी। आपके पूर्वज की धर्मवृत्ति के कारण ही स्वयं भगवान् ने उनके दूत एवं रथ के सारथि का कार्य किया था।
आप उसी पांडव वंश के मालूम पड़ते हैं। आप हमें अभय दे रहे हैं, यह आपकी वंश – परंपरा है। जो हमें क्लेश दे रहा है, उसे आप स्वयं समझें । कलि के समक्ष आगे कुछ कहने में असमर्थ हूँ। क्लेशदाता कौन है यह निर्णय करना या विचार करना कठिन है। कालचक्र प्रबल है। इसलिए कलि ऐसा कर रहा है।