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भागवत कथा का पहला दिन bhagwat katha 1day
इधर धुंधुकारी ने धन के लोभ में अपनी माता धुंधली को खूब पीटा और उसने पूछा कि धन कहाँ छिपाकर रखा गया है यह बता दो नहीं तो हत्या कर दूंगा। धुंधली भय से व्याकुल होकर रात में घर से भाग गयी और अंधेरे की वजह से एक कुएँ में गिरकर मर गयीं।
उसे अधोगति प्राप्त हुई। इधर वह गाय के पुत्र गोकर्णजी को अपने कानों से केवल भगवत् भजन सुनना ही अच्छा लगता था। पिताजी को वन में जाकर भजन करने की सलाह देकर वे स्वयं तीर्थों के भ्रमण में चले गये थे। अब घर पर धुंधकारी अकेले रह गया था।
वह जुआ, शराब और वेश्याओं के साथ जीवन बिताने लगा। पाँच वेश्याओं को उसने अपने घर ही रख लिया था। वह चोरी से धन लाकर वेश्याओं के साथ रमण करता था। वेश्याएँ तो केवल धन के लोभ से धुंधुकारी के घर आयी थीं।
एक दिन धुंधुकारी ने बहुत से आभूषण चोरी कर लाया। राजा के सिपाही चोरी का पता लगाने के लिए छानबीन करने लगे। वेश्याओं ने सोचा कि धुंधुकारी की हत्या कर सारा धन लेकर अन्यत्र चली जायें।
एक रात सोये अवस्था में वेश्याओं ने धुंधकारी के हाथ पैर बांध दिया और वे गले में फंदा डालकर उसे कसने लगीं। धुंधुकारी के प्राण निकलते नहीं देख उन सबने उसके मुँह में दहकते आग का अंगारा दूंस दिया। अन्त में धुंधुकारी तड़प-तड़प कर कष्ट सहकर मर गया।
वेश्याओं ने वहीं गड्ढा खोदकर धुंधुकारी की शव को गाड़ दिया और ऊपर से मिट्टी से ढंक दिया। सारे आभूषण एवं सम्पत्ति लेकर वेश्यायें वहाँ से अन्यत्र चली गयीं। धुंधुकारी जैसों का ऐसा ही अन्त होता है।
धुंधुकारी के बारे में कुछ दिन तक किसी ने पूछताछ नहीं की। समय बीतता गया। पूछताछ करने पर वेश्याएं बता देती कि वह कहीं कमाने चला गया है, एक वर्ष में आ जायेगा।
जहाँ तहाँ शास्त्रों में कहा गया है कि मातायें प्रायः अति कोमल एवं अति कठोर हृदय की होती हैं। वेश्याओं का हृदय तो अति कठोर होता है या व्यभिचारिणी स्त्रिशाँ कठोर हृदय की होती हैं, इसलिए उन पर विश्वास नहीं करना चाहिए। पतिव्रता एवं धर्मचारिणी स्त्रियों का हृदय नवनीत के समान कोमल होता है।
वे दयालु होती हैं। विपत्ति के समय भी कुकृत्य नहीं करतीं या कुमार्ग नहीं पकड़तीं। जैसे द्रौपदी का चीरहरण हो रहा था लेकिन द्रौपदी कृष्ण को पुकारते हुए दुर्योधन को सुयोधन कहती है। उसे दुर्योधन नाम से नहीं सम्बोधित करती।
विपत्ति में भी उसके मुँह से अपशब्द नहीं निकलता। उसने अपना उच्च संस्कार बनाये रखा। वह अपने सुन्दर आचरण का आवरण अपनी वाणी से नहीं हटाती, इसलिए द्रौपदी महान् है। इधर मृत्यु के बाद धुंधुकारी बहुत बड़ा प्रेत बन गया। वह वायु रूप धारण किये रहता था।
भूख-प्यास से व्याकुल होकर चिल्लाता और भटकता रहता था। धीरे-धीरे उसकी मृत्यु की बात लोगों को मालूम हो गयी। गोकर्णजी तीर्थयात्रा से लौटकर घर आये तो कुछ दिनों के बाद धुंधुकारी की मृत्यु की उन्हें भी मालूम हो गयी। गोकर्ण ने धुंधुकारी को अपना भाई समझ घर पर श्राद्ध किया।
गया में पिण्डदान एवं तर्पण किया। प्रेतशिला, गया में प्रेत योनि का श्राद्ध होता है। धर्मारण्य में भी पिण्डदान किया जाता है। अतः पितरों को सद्गति के लिए सही कर्मकांडी से पिण्डदान कराना चाहिए। गोकर्ण द्वारा श्राद्धकर्म करने के बाद भी धुंधुकारी की प्रेतयोनि नहीं बदली।
एक दिन गोकर्णजी अपने आंगन में सोये थे। धुंधुकारी बवंडर के रूप में आया। वह कभी हाथी, कभी घोड़ा और कभी भेंड़ का रूप बनाकर गोकर्ण के पास खड़ा हो जाता। गोकर्ण ने धैर्य से पूछा- “तुम कौन हो ? प्रेत हो, पिशाच हो, क्या हो ? वह संकेत से बताया कि इसी स्थान पर मारकर उसे गाड़ा गया है।
अन्यत्र ग्रन्थों में ऋषियों द्वारा कहा गया है कि गीता के ११वें अध्याय के ३६वें श्लोक का मंत्र सिद्ध कर एक हाथ से जल लेकर मंत्र पढ़कर प्रेतरोगी पर छींटा जाय तो अवरूद्ध पाणीवाला प्रेतरोगी बोलने लगता है। गोकर्ण ने भी मंत्र पढ़कर जल छिड़क दिया। जल का छींटा पड़ने से प्रेत धुंधुकारी बोलने लगा।
उसने कहा- “मैं तुम्हारा भाई धुंधुकारी हूँ। अपने किये कुकर्मों से ब्राह्मणत्व का नाश कर अब प्रेत योनि को प्राप्त किया हूँ। वेश्याओं ने मेरी हत्या कर मुझे गड्ढे में डाल दिया है। उसी समय से प्यासा हूँ और मेरा मुँह सूई के छिद्र के समान है तथा मैं पानी भी नहीं पी सकता अतः मेरा उद्धार करें।
“अहं भ्राता तवदीयोऽस्मि धुंधुकारीतिनामतः,
स्वकीयेनैव दोषेण ब्रह्मत्वं नाषितं मया”।
मैं आपका भाई धुंधुकारी हू, अपने ही पाप-कर्म के कारण आज इस योनी को प्राप्त किया हू। वह धुंधकारी की व्यथा को सुनकर गोकर्ण रो पड़े। उन्होंने पूछा कि श्राद्ध करने के बाद भी तुम्हारी मुक्ति क्यों नहीं हुई तो धुंधकारी ने बताया कि मैंने इतने पाप किए हैं कि सैंकड़ों श्राद्ध से भी मेरा उद्धार नहीं हो सकता।
उसने कोई दूसरा उपाय करने की बात कही। गोकर्ण ने कहा- “दूसरा उपाय तो दुःसाध्य है। अभी तुम जहाँ से आये हो वहाँ लौट जाओ। मैं विचार करके दूसरा उपाय करूँगा।’ विचार करने पर भी गोकर्ण को कोई भी उपाय नहीं सूझा।
पंडितों ने भी कोई राह नहीं बतायी। फिर कोई उपाय न देख गोकर्ण जी ने सूर्यदेव की आराधना करते हुए सूर्य का स्तवन कर सूर्य से ही धुंधुकारी की मुक्ति हेतु प्रार्थना की। सूर्य ने कहा कि भागवत सप्ताह के पारायण से ही मुक्ति होगी और दूसरा कोई उपाय नहीं है।
इस प्रकार श्रीगोकर्ण ने स्वयं भागवत कथा का सप्ताह पाठ शुरू किया। शास्त्र वचन है कि स्वयं से कोई धार्मिक अनुष्ठान करने या करवाने पर फल अच्छा होता है। गोकर्ण द्वारा भागवत सप्ताह पारायण का आयोजन सुनकर बहुत लोग आने लगे।
धुंधुकारी भी प्रेत योनि में रहकर भी कथा श्रवण के लिए स्थान खोजने लगा। वहीं एक बांस गाड़ा हुआ था। वह उसी बांस में बैठकर(वायु $प में) भागवत कथा श्रवण करने लगा। पहले दिन की कथा में ही बांस को एक पोर फट गया।
इसप्रकार प्रतिदिन बांस का एक-एक पोर फटने लगा और सातवां दिन बांस का सातवां पोर फटते ही वह प्रेत धुंधुकारी ने प्रेतयोनि से मुक्ति पाकर और देवता के जैसे दिव्य स्वरूप में प्रकट होकर गोकर्ण को प्रणाम किया।
इसप्रकार धुंधुकारी भागवत कथा श्रवण कर भगवान् के पार्षदों द्वारा लाये गये विमान में बैठकर दिव्य लोक में प्रस्थान कर गया। यह धाटना को देखकर वहाँ उपस्थित सभी लोगों ने आश्चर्यचकित होकर भगवान के पार्षदों सहित धुंधकारी को प्रणाम किया।
अतः यह श्रीमद् भागवत कथा प्रेत बाधा को दूर करने के लिए भी सबसे श्रेष्ठ उपाय है। इसप्रकार भागवत कथा का सप्ताह श्रवण कर धुंधुकारी ने सद्गति प्राप्त की। प्रेत योनि निकृष्ट योनि है। उसका भी उद्धार भागवत कथा के श्रवण से संभव है।
भागवत कथा का पहला दिन bhagwat katha 1day
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