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bhagwat katha hindi mein श्रीमद् भागवत कथा
महाभारत में एक कथा है कि मांडव्य ऋषि तपस्या कर रहे थे। वे तपस्या में लीन थे। कुछ चोरों ने मांडव्य ऋषि को तपस्या में ध्यानमग्न पाकर चोरी का सामान उनकी कुटिया में छिपा दिया।
सिपाहियों ने मांडव्य ऋषि के आश्रम में उक्त चोरी का सामान बरामद कर लिया और चोरों को भी पकड़ लिया। चोरों के साथ मांडव्य ऋषि को भी पकड़कर लाया गया। राजा ने चोरों के साथ मांडव्य ऋषि को भी फाँसी की सजा दे दी।
मांडव्य ऋषि को भी शूली पर चढ़ाया गया। चोर तो शूली पर चढ़ने पर मौत को प्राप्त हुए। लेकिन मांडव्य ऋषि को फाँसी पर चढ़ाने में तीन बार रस्सा टूट गया। तब राजा ने उन्हें फाँसी के तख्ते से अलग हटाकर उनसे पूछा कि ऐसा क्यों हो रहा हे ?
मांडव्य ऋषि ‘मैं तो ध्यानमग्न था। मैं नहीं जानता कि मेरे आश्रम में बरामद सामान किसने रखा ? राजा तूने जो कुछ मेरे साथ किया है वह अनजान में किया है अतः उसके लिए मैं तुम्हें क्षमा कर दूंगा।
लेकिन अंतिम कागज लिखनेवाले यमराज से पूछूगा कि राजा के माध्यम से मुझे शूली पर क्यों चढ़ाया गया ? मांडव्य ऋषि राजा को छोड़कर यमराज के पास पहुँचे। कुशल समाचार होने पर यमराज ने मांडव्य ऋषि के आने का कारण पूछा।
माण्डव्य ऋषि ने यमराज से पूछा किस अपराध के कारण मुझे शूली पर चढ़ाया गया ? यमराज ने चित्रगुप्त को बुलाया। चूंकि उन्हीं के लेखन के कारण ऐसा हुआ था।
चित्रगुप्त ने कहा कि ऋषि द्वारा ५-६ वर्ष की उम्र में एक तितली को तीन बार कांटा चुभाया गया था, इसी अपराध के कारण इन्हें शूली पर लटकाया गया। मांडव्य ऋषि क्रोधित हो गये और ने कहा बोले कि १० वर्ष की उम्र तक के बच्चों को उनके अपराध के लिए शारीरिक दण्ड नहीं दिया जाता है।
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उन्हें स्वप्न में दण्ड दर्शाया जाता हैं तुमलोगों ने मेरे साथ दूर कर्म किया है। मोडव्य ऋषि ने यमराज को शूद रूप में जन्म लेने का शाप दिया। वही श्री व्यास जी के तेज से दासी-पुत्र के रूप में यमराज विदुर बनकर धराधाम पर आये।
मांडव्य ऋषि के संशोधित विधान के अनुसार १४ वर्ष तक की उम्र के बालकों का अपराध दंडनीय नहीं माना जाता। ऐसे बालक को शरीर से दण्ड नहीं देकर बल्कि स्वप्न में दण्ड को दर्शाया जाएगा जो चौदह वर्ष तक के होंगे जितने दिनों तक विदुरजी धराधाम पर रहे उतने समय तक अर्यमा नामक सूर्यपुत्र यमराज के कार्य प्रभार में थे।
विदुरजी जानते थे कि थोड़ा अपराध करने से उन्हें दासीपुत्र के रूप में जन्म लेना पड़ा है। वे कौरवों के अनाचार में किसी तरह शामिल होना नहीं चाहते थे तथा उन्हें नेक सलाह देते थे, जो दुर्योधन तथा कौरवों को अच्छा नहीं लगता था।
कौरव पांडवो के उपर आनाचार एवं अत्याचार कर रहे थे। अतः महारभारत युद्ध से पहले ही विदुरजी तीर्थयात्रा में चले गये थे तथा युद्ध समापन के बाद तीर्थ यात्रा से लौटकर आये।
तीर्थ यात्रा से हस्तिनापुर आने के बाद विदुरजी धृतराष्ट्र एवं परिवार के सदस्यों को उपदेश देते रहते थे। विदुरजी के आने के बाद धर्मराज युधिष्ठिर आनन्दित होकर राजकाज चलाने लगे थे। इस संसार में शुभ एवं अशुभ कार्यों का चक्र चलता रहता है। वह विदुरजी कि पुर्व जन्मो के जीवन को जानकर आनन्दित एवं सेवा में तत्पर थे।
एक दिन एकान्त में विदुरजी ने धृतराष्ट्र से कहा कि- हे भाई धृतराष्ट्र आपकी मृत्यु होने वाली है। मृत्यु को कोई रोकनेवाला नहीं। जिन पांडवों को आपने अग्नि में जलाकर मारने का षड्यंत्र किया, उन्हीं की सेवा स्वीकार कर रहे हैं।
आपलोगों ने भीम को विष दिलवाया, द्रौपदी को भरी सभा में वस्त्रहीन करने का प्रयास किया तथा उसे अपमानित किया। आज उन्हीं पांडवों के अन्न पर जी रहे हैं। इस जीवन से क्या लाभ ?
अतः आप वानप्रस्थ को स्वीकार करें क्योंकि “जो मनुष्य स्वयं अपने से या दूसरों के उपदेश से यदि वैराग्य को नहीं प्राप्त करता या वैरागी बनकर अपने हृदय में भगवान् को नहीं बैठाता, उससे निकृष्ट दूसरा नहीं।
ऐसी परिस्थित में जो व्यक्ति वैरागी बनकर वनगमन करता है, वह श्रेष्ठ है।” अतः आप वन में जायें और भगवान् का भजन करें। वे धृतराष्ट्र रात में ही गान्धारी को साथ लेकर हिमालय की तरफ चल पड़े।
सुबह होने पर धर्मराज अपने चाचा-चाची को प्रणाम करने गये। वहाँ धृतराष्ट्र एवं गान्धारी को नहीं पाकर बहुत दुःखी हुए। धर्मराज ने संजय से पूछा कि मेरे नेत्रहीन माता-पिता नहीं हैं।
मेरे माता पिता के मरने के बाद वे ही दोनों मुझे स्नेह देनेवाले थे और प्यार करनेवाले बचे थे। कहीं हमें अपराधी जानकर गंगा नदी में तो नहीं डूब गये ? धर्मराज अपना ही दोष देखते हैं और रोने लगते हैं।
संजय को भी पता नहीं था कि वे लोग अचानक कहाँ चले गये हैं। उसी समय नारदजी तुम्बरु नामक गन्धर्व के साथ धर्मराज के पास पहुँच जाते हैं। शास्त्र में कहा गया है कि ज्ञान-अज्ञान, उत्पत्ति-संहार, विद्या-अविद्या को जाननेवाले को भगवान् कहा जाता है।
नारदजी भी भगवान् के भक्त होने के कारण ही भगवान के समान आदरणीय हैं। अतः नारदजी को भी भगवान शब्दों से सम्बोधित किया गया है। वह धर्मराज ने दुःखी मन से धृतराष्ट्र एवं गांधारी के बारे में पूछते हुए नारदजी का सत्कार किया। “नारदजी ने कहा कि आप शोक न करें।
धीर पुरुष काल-चक्र के अनुसार संसार की व्यवस्था देखकर दुःखी नहीं होते। काल मनुष्य को संयोग और वियोग कराता है। जो स्वयं कालग्रसित है, वह दूसरों की रक्षा कैसे कर सकता है? यानी आपके बिना वे कैसे जीवित होंगे, इसकी चिन्ता छोड़ दें।”
वे धृतराष्ट्र गांधारी के साथ हिमालय में ऋषियों के आश्रम पर तपस्या कर रहे हैं। वे केवल जल पीकर रात दिन भगवत् भजन कर रहे है। उन लोगों ने इन्द्रियों को जीत लिया है। आज से पूर्व दिन वे ध्यान करते हुए शरीर त्यागकर भगवत धाम में जानेवाले हैं।
गांधारी भी धृतराष्ट्र के साथ सती हो जायेंगी। विदुरजी भी वहीं है। उनके महाप्रयाण के बाद विदुरजी तीर्थयात्रा में चले जायेंगे। आप राजकाज संभालें। नारदजी धर्मराज को ऐसी सांत्वना देकर देवलोक चले गये। धर्मराज शान्तचित्त होकर राजकाज करने लगते है।
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