bhagwat katha in hindi भागवत कथा इन हिंदी

bhagwat katha in hindi  भागवत कथा इन हिंदी

भागवत कथा सुनने, सप्ताह पारायण कराने के लिए ज्योंहि मनुष्य सोचने लगता है, पाप कर्म काँपने लगते हैं। मानवयोनि में ही हम भागवत कथा श्रवण का लाभ उठा सकते हैं। अन्य योनियों में यह संभव नहीं है क्योंकि जिस योनि में जो जन्म लेता है, उसी योनि के देह से जीव को ममता हो जाती है।
अन्य ग्रन्थो में एक कथा आती है कि एक त्रिकालदर्षी ब्राह्मण थे। पंडितजी जानते थे कि मरने के बाद वे सूकर योनि में जन्म लेंगे। उन्होंने अपने पुत्रों से अगले जन्म का स्थान, रूप-रंग आदि बता दिया। पुत्रों से कहा कि जन्म होने के साथ ही उन्हें (सूकर के बच्चे को) मार देना।
सूकर पालक से भी पहले ही वे ऐसा ही करने के लिए बोल चुके थे। पंडितजी ने मरने के बाद सूकर के रूप में जैसे ही जन्म धारण किया, उनके पुत्रों ने उन्हें मारने के लिए पकड़ा। लेकिन सूकर का बच्चा नहीं मारने के लिए सिर हिलाने लगा। पुत्रों ने समझा कि पंडितजी नहीं मारने को बोल रहे हैं।
वे उसे छोड़कर चले गये। अतः हम भी नहीं जानते हैं कि अगले जन्म में किस योनि में जन्म लेंगे या फिर कभी भागवत कथा सुनने को मिले न मिले, क्या पता ?

इसप्रकार भगवत् भक्ति के कारण प्रेत धुंधुकारी दिव्य रूप धारण कर भगवान् के दिव्य लोक में चला गया। हम सामान्य मनुष्य भी भागवत कथा को ध्यान से सुनें, तो हमें भी भगवान् के धाम में स्थान मिल जायेगा। विधिवत् सप्ताह श्रवण वहाँ केवल धुंधुकारी ने ही किया था, इसलिए भगवान् के पार्षद् केवल धुंधुकारी को ही विमान पर चढ़ाकर ले गये।

गोकर्णजी ने भगवान् के पार्षदों से पूछा कि अन्य श्रोताओं को धुंधुकारी जैसा फल क्यों नहीं प्राप्त हुआ, तो पार्षदों ने कहा कि हे महाराज ! प्रेत योनि प्राप्त धुंधुकारी ने उपवास रखकर स्थिर चित्त से सप्ताह कथा को श्रवण किया है।
ऐसा अन्य श्रोताओं ने नहीं किया है। इसीलिए फल में भेद हुआ है। भगवान् के पार्षद धुंधुकारी को विमान में बैठाकर गोलोक लेकर चले गये। वह गोकर्णजी ने श्रावण मास में पुरे नगरवासियों के कल्याण हेतु पुनः भागवत सप्ताह का प्रारम्भ की।
इस बार सभी श्रोताओं ने उपवास व्रत एवं स्थिर चित्त से भागवत सप्ताह कथा का श्रवण किया। भगवान् विष्णु स्वयं प्रकट हो गये। सैंकड़ों विमान उनके साथ आ गये। भगवान् ने गोकर्ण को हृदय से लगाकर उन्हें अपना स्वरूप दे दिया।
चारों तरफ जय-जयकार एवं शंख ध्वनि होने लगी। सभी श्रोता दिव्य स्वरूप पाकर विमानों पर सवार होकर गोलोक चले गये। भगवान् विष्णु गोकर्ण को अपने साथ विमान में लेकर गोलोक चले गये। अतः विमान का मतलब “विगतं मानं यस्य इति विमानः” .यानी मान का नष्ट होना विमान है।

bhagwat katha in hindi  भागवत कथा इन हिंदी

यह सारा प्रकरण सुनाकर सनत्कुमार ने नारदजी से कहा कि हे नारदजी ! सप्ताह कथा के श्रवण के फल अनन्त हैं, उनका वर्णन संभव नहीं। जिन्होंने गोकर्ण द्वारा कही गयी सप्ताह कथा का श्रवण किया, उसे पुनः मातृ गर्भ की पीड़ा सहने का योग नहीं मिला।

वायु-जल पीकर, पत्ते खाकर, कठोर तपस्या से, योग से जो गति नहीं मिलती, वह सब भागवत सप्ताह कथा श्रवण से प्राप्त हो जाती है। इस कथा से यह उपदेश मिलता है कि धुंधुकारी रूपी अहंकार को गोकर्णरूपी विवेक से भागवत कथा रूपी ज्ञान द्वारा शान्त या मुक्त किया जा सकता है।

वह मुनीश्वर शाण्डिल्य चित्रकुट पर इस पुण्य इतिहास को पढ़ते हुए परमानन्द में मग्न रहते हैं। पार्वण श्राद्ध में इसके पाठ से पितरों को अनन्त तृप्ति होती है। प्रतिदिन इसका श्रद्धापूर्वक पाठ करने से मनुष्य पुनः जन्म नहीं लेता।

यह श्रीमद्भागवत कथा वेद-उपनिषद् का सार या रस ही है जैसे वृक्षों का सार या रस ही फल होता है। अतः ऐसी श्री भागवतकथा को सुनने से गंगास्नान, जीवनपर्यन्त तीर्थ यात्रा आदि करने का जो फल प्राप्त होता है वह फल केवल श्रीमद्भागवत सप्ताह सुनने से ही प्राप्त होता है।
इसलिए शास्त्रों में कहा गया है कि श्रीवैष्णव संतों से अवश्य ही श्रीमद्भागवत सप्ताह सुनना चाहिए क्योंकि सुख-दुःख तो अपने कर्मों से मिलते हैं परन्तु श्रीगोविन्द तो मिलते है संतों की कृपा से ही। अतः गोकर्ण जैसे संत का सग करना चाहिए। यानी मन को संतों के संग एवं भगवान् में लगाना चाहिए।
यदि मन भगवान् में नहीं भी लगे तो तन को जरूर भगवान् में लगाना चाहिए क्योंकि तन को भगवान् में लगाने पर अगत्या मन निश्चित ही भगवान् में लग जाएगा। अत: पहले तन को भगवान् में लगाये। मानव के दो प्रमुख शत्रु हैं वे हैं इर्ष्या एवम् क्रोध। मानव के दो प्रमुख मित्र हैं- विवेक और कर्म करना। अतः इन दोनों शत्रुओं को त्यागकर विवेकपूर्वक कर्म करना चाहिए। ऐसा करने से भगवान् अवश्य प्राप्त होते हैं।

सबसे पहले तो किसी अच्छे ज्योतिषी से शुभ मुहुर्त पूछ लें। पद्मपुराण में भी सप्ताह कथा श्रवण का नियम बताया गया है। पौष एवं चैत्र मास में सप्ताह कथा श्रवण नहीं करना चाहिए। क्षय तिथि में सप्ताह कथा श्रवण का प्रारम्भ नहीं करना चाहिए।
द्वादशी को कथा श्रवण वर्जित है। क्योकि सूतजी का देहावसान द्वादशी तिथि को ही हुआ था। इसलिए द्वादशी के दिन कथा प्रारम्भ का निषेध है- सूतक लगता है। परन्तु कथा में सप्ताह कथा के बीच में द्वादसी तिथी आने पर कथा श्रवण वर्जित नही है।
निष्कामी या प्रपन्न श्रीवैष्णव पर यह उपर का नियम लागू नहीं होगा क्योंकि भगवान् की कथा में तिथि-काल-स्थान का दोष नहीं लगता है। भगवान् की कथा से ही समस्त दोष दूर होते हैं। इस प्रकार पहले नान्दी श्राद्ध करके मंडप बनायें तथा श्रीफल सहित कलश स्थापन करें।

bhagwat katha in hindi  भागवत कथा इन हिंदी

श्री भागवत जी को तथा पौराणिक आचार्यों का प्रतिदिन पूजन करें। मंडप में शालिग्राम शिला अवश्य रखें तथा हो सके तो योग्यता के अनुसार स्वर्ण की विष्णुप्रतिमा बनवाकर, उसे प्रधान कलश पर रखें या सवा वित्ते लम्बे-चौड़े ताम्रपत्र को विष्णु मानकर पूजा करे।
पाँच, सात या तीन या व्यवस्था के अनुसार अधिक ब्राह्मण कथा के आरम्भ से अन्त तक रखकर गायत्री तथा द्वादशाक्षरादि मंत्र का जाप करायें। एक शुद्ध श्रीवैष्णव ब्राह्मण से मूल भागवत का पाठ करावें। जिस माह में जिस खास पदार्थ का सेवन वर्जित है उसे सप्ताह श्रवण के दिनों में वर्जित मानकर ग्रहण या सेवन नहीं करे।

इस सप्ताह यज्ञ में निमंत्रण पत्र भेजकर देशभर में जहाँ कहीं भी अपने कुटुम्ब के लोग हों, उन्हें इस समारोह में बुलावें। ज्ञानी, महात्मा, सन्तजनों को भी विशेष रूप से निमंत्रित कर बुलावें। विवाह के समारोह में जैसी व्यवस्था होती है, उसी तरह व्यवस्था करें। तीर्थ में भागवत कथा को श्रवण करना चाहिए या वन-उपवन में कथा श्रवण समारोह आयोजित करना चाहिए। यह संभव नहीं हो तो घर में भागवत कथा श्रवण की व्यवस्था करें।

लेकिन घर पर भी मंडप बनाकर यानी कथा का मंडप २४ फीट लo+चौ० एवं फूल माला, पत्रादि से शोभित हो। कथा समारोह श्रवण का वातावरण बनावें। प्रवचनकर्ता व्यास के लिए सिंहासन की व्यवस्था करें। व्यास उत्तरमुख बैठें तो यजमान पूरब मुख ।
व्यास यदि पूर्वाभिमुख तो श्रोता उत्तराभिमुख बैठे। सात पंक्तियों में श्रोता बैठे। प्रथम पंक्ति में संन्यासी, दूसरी पंक्ति में वानप्रस्थ, तीसरी में ब्रह्मचारी, चौथी में वेदज्ञाता, पाँचवीं पंक्ति में लोगों को अधर्म से धर्म में लगानेवाले क्षत्रिय, छठी में वैश्य लोग एवं सातवीं पंक्ति में शेष लोगों को बैठाने की विधि बतायी गई है।
स्त्रियों को बायीं ओर बैठने की व्यवस्था होनी चाहिए। अन्य श्रोतागण को दक्षिण तरफ बैठाये। च्यास गद्दी पर बैठे वक्ता से श्रोता का आसन नीचे होना चाहिए। किसी भी हालत में ऊँचा नहीं होना चाहिए। अन्यत्र ग्रन्थो में एक कथा आती है कि-
 महाभारत युद्ध के आरम्भ में श्रीकृष्ण भगवान् ने कुरुक्षेत्र में रथ का सारथी बनकर अर्जुन को गीता का उपदेश दिया रथ की ध्वजा पर हनुमानजी विराजमान थे। गीता के उपदेश की समाप्ती पर अर्जुन ने कहा कि मैं आपका शिष्य हूँ, अतः पूजन करूँगा और अर्जुन ने श्रीकृष्ण भगवान् की पूजा की।
हनुमानजी प्रकट होकर बोले कि मैंने भी गीता के उपदेश को श्रवण किया है। मैं भी शिष्य हूँ पूजन करूँगा। भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा कि आपने ध्वजा पर विराजमान होकर मुझसे उँचे स्थान से उपदेश श्रवण का अपराध किया है। इसलिए आपको पिशाच योनि मिलेगी।
शाप के भय से भयभीत श्री हनुमानजी कृष्ण भगवान् की स्तुति करने लगे। भगवान् ने कहा कि आप गीता का भाष्य करेंगे तो शाप से मुक्त हो जायेंगे। हनुमानजी ने गीता पर पिशाच्य भाष्य लिखा और शाप से मुक्त हुए।
 अतः श्रोता को व्यास से उँचे आसन पर कभी नहीं बैठना चाहिए। सात दिन तक कथा के मध्य में बाल या क्षौर नहीं कराना चाहिए। प्रातःकाल में मूल पारायण करायें। संस्कृत का ज्ञान हो या नही, यजमान श्रोता को परायण पाठ अवश्य श्रवण करना चाहिए।
मध्याह्न या संध्या में संस्कृत के श्लोकों की अर्थ सहित कथा कहनी चाहिए।  सोकर कथा सुननेवाला अजगर तथा बिना प्रणाम किये सुननेवाला वृक्ष होता है। रोगी पर यह नियम लागू नहीं होता। कथा के बीच में श्रोता को प्रश्न नहीं करना चाहिए। कथा के मध्य में यदि कोई प्रश्न हो या शंका हो तो कथा के अन्त में कथावाचक से पूछ लेना चाहिए। कथा के मध्य प्रश्न करने से रसभंग होता है, सरस्वती कुपित होती हैं।
ऐसा प्रश्नकर्ता मरकर गूंगा होता है। तीन जन्म गूंगा रहने के पश्चात् कौवे की योनि प्राप्त करता है। व्यास गद्दी पर जो हो उसे साक्षात् व्यास रूप मानना चाहिए। सबके लिए वह पूजनीय होता है। व्यास गद्दी पर बैठनेवाला यदि किसी को प्रणाम नहीं करे तो कोई बात नहीं।
वैष्णव मानकर कथावाचक किसी को प्रणाम करता है तो कोई हर्ज नहीं। अच्छी बात है। व्यासगद्दी पर बैठा हुआ व्यक्ति, माता-पिता एवं गुरु से भी श्रेष्ठ माना गया है। किसी की मंगल-कामना एवं आशीर्वचन भी उसे नहीं करना चाहिए। वास्तव में आचार्य ब्राह्मण को ही बनाना चाहिए। कलियुग में ब्राह्मणत्व जन्म से ही प्राप्त होता है तथा इसके अलावा तप आदि से ब्राह्मणत्व पूर्ण और शुद्ध हो जाता है।
अतः इस कलियुग में जीवों के कल्याण का एक मात्र उपाय का निर्णय करते हुए कलिसंतरणोपनिषद् में कहा गया है कि-
“रहस्यम् गोप्यं तच्छृणु येन कलि संसारं तरिष्यसि। 
भगवत आदिपुरुषस्य नारायणस्य नामोच्चारणमात्रेण निर्धूतकलिर्भवति। 
नातः परतरोपायः सर्व वेदेषु दृश्यते।” 
अर्थात् हे संसार के प्राणियों सब श्रुतियों का रहस्य और गोप्य को सुनो, जिससे कलि में संसार को पार करोगे। वह जो आदि पुरुष भगवान् श्रीमन्नारायण हैं उनके नाम उच्चारण करने से समस्त पाप से निवृति हो जाती है। इससे बढ़कर सहज उपाय वेदों में नहीं है।

इस भागवत कथा को आषाढ़ में गोकर्णजी ने धुंधुकारी के निमित्त सुनाया तथा पुनः श्रावण में सभी ग्रामवासियों के लिए सुनाया। भादो में शुकदेवजी ने परीक्षित् को सुनाया, भगवान् ने ब्रह्मा को पढ़ाया, क्वार में मैत्रेय जी उद्धवजी को, कार्तिक में नारदजी ने व्यासजी को, एवं अगहन में व्यास जी ने शुकदेव जी को भागवत कथा पढ़ाया।

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नारदजी ने इसी तरह उपर्युक्त नियमों के अनुसार भागवत कथा का आयोजन किया था। ज्ञान और वैराग्य, वृन्दावन में भागवतकथा समारोह के आयोजन होते ही तरुण हो गये। भक्ति देवी प्रसन्नता से अपने दोनों पुत्रों ज्ञान और वैराग्य की तरुणाई देखकर नाचने लगी।

यह देखकर नारदजी आह्लादित हो गये। भक्ति का प्रचार घर-घर में हो गया। ज्ञान-वैराग्य जवान हो गये। नारदजी कहने लगे कि आज धन्य हो गया हूँ। भागवत कथा का श्रवण सभी धर्मकार्यों मे श्रेष्ठ एवं प्रिय है। भागवत कथा की सभा में भगवान् भी वैकुण्ठ से आ जाते हैं।
अतः श्रीभागवत कथा को श्रद्धा-विश्वास निष्ठा से कहना सुनना चाहिए। जब यह कथा हो रही थी तो भगवान् भी आ गये तथा श्री शुकदेवजी भी इस समारोह में भागवत पुराण के श्लोकों का शनैः शनैः गायन करते आ गये।
श्रीशुकदेवजी को देखते ही सभी खड़े हो गये और उनको अनेक प्रकार से भक्ति भाव द्वारा पूजन कर एक दिव्य सिंहासन पर बैठाया गया। श्रीशुकदवेजी दिगम्बर थे। यानी दिशायें ही उनका आवरण थीं। अतः अल्पवस्त्र जैसे केवल लंगोटी पहने थे।
शास्त्र में कहा गया हैं कि सिंहासन पर बैठना गलत नहीं है, बल्की उसमें आशक्ति नहीं होनी चाहिए। यानी किसी चीज की चाह आसक्ति है। जैसे- जेल बन्धन नहीं है। उसमें काम करनेवाले जेलर एवं अन्य जेलकर्मियों के लिए जेल बन्धन नही है परंतु राज नियम-कानून के विरूद्ध कार्य करनेवालों के लिए जेल बन्धन है।

इसकी पुष्टी अन्यत्र ग्रन्थों की कथा से होती है कि एक बार नारदजी एवं श्री शुकदेवजी में देवर्षि एवं संत होने की प्रतियोगिता हो गयी। आहार शुद्धि से स्मृति होती है। नारदजी एवं शुकदेवजी दोनों भ्रमण में थे। दोनों में साधुता की प्रतियोगिता थी। नारदजी तो शाप दे देते हैं परन्तु शुकदेवजी ने कभी किसी को शाप नहीं दिया।

इन दोनों के परीक्षक श्री जनकजी बने, क्योंकि व्यासजी ऐसी आज्ञा दी थी। इधर श्री नारदजी एवं शुकदेवजी जनकजी के पास गये तो जनक जी ने तीन दिन द्वार पर और तीन दीन अपने आंगन में दोनों को खड़ा रखा यानी बैठने का आदेश नहीं दिया।
फिर श्री जनकजी ने नारदजी और शुकदेवजी के बीच अपनी पत्नी को बैठा दिया तब दोनों को बैठने का आदेश दिया। श्रीनारदजी इस घटना से कुछ उद्विग्न सा हो गये परन्तु शुकदेवजी पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा बल्कि शुकदेवजी नहीं जानते थे कि मैं किसके साथ बैठा हूँ। इस प्रकार परीक्षा में शुकदेवजी ने उत्तम सफलता प्राप्त की वैसी नारदजी ने सफलता नहीं प्राप्त की।

यह भागवतकथा एक ऐसा अपूर्व फल है, जिसमें कोई विकृति नहीं है। यह एक दिव्य अमृत है। अतः इसके पान करने से जन्म मृत्यु धन्य हो जाते हैं। श्री शुकदेवजी द्वारा इस कथा को जूठा किया हुआ है यानी श्री शुकदेवजी ने भागवत पुराण के रस को ग्रहण किया है।

अतः रसज्ञों को भागवत कथा का रस रात-दिन ग्रहण करना चाहिए। यह भगवत् कृपा से पृथ्वी पर प्राप्त हुआ अमृत-फल है। यह केवल पृथ्वीलोक के भारतवर्ष में ही सुलभ है क्योंकि यह भारतवर्ष में ही प्रकट हुआ है। तथा भारत में भी सनातनधर्मी के लिए ही यह सुलभ है।
इधर उसी हरीद्वार के आनन्दवन के भागवत् कथा समारोह में भगवान अपने पार्षदों प्रह्लाद ध्रुव अर्जुन वगैरह को जो साथ में लाये थे। वे सभी भगवान का पूजन कर वह भक्त मंडली अपने-अपने वाद्यों को बजाकर कीर्तन करने लगी। सभी लोग जय-जयकार करने लगे।
भगवान् ने ऐसी भक्तमंडली के भक्ती को देखकर वर मांगने को कहा। भक्तों ने कहा कि जहाँ भी भागवत कथा हों, वहाँ आप अवश्य पधारें यही हमें बरदान दे। भक्त-वत्सल भगवान् ने कहा “तथास्तु” – ऐसा ही होगा। उसके बाद सभी देवता अपने-अपने लोक में चले गये। सूतजी कहते हैं कि हे-

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शौनकजी! मनुष्य का शरीर पाकर जिसने भागवत कथा नहीं सुनी, भजन नहीं किया, सुकृत नहीं कियावह पृथ्वी के लिए भार है। भागवतकार कहते हैं कि हर तरह के दुःखी भी यदि प्रभु श्रीमन्ननारायण की शरणागति करे, तो उसे परमानन्द की प्राप्ति होती है।

जबतक जीवन रहे सभी इन्द्रियों को भगवान् की सेवा में लगा दें। इस प्रकार रोमहर्षण सूत के पुत्र उग्रश्रवा सूतजी ने कहा कि हे शौनकजी ! इस भागवत माहात्म्य कथा को मैंने संक्षिप्त में आपको सुनाया।

।। श्रीमद्भागवत महापुराण माहात्म्य कथा समाप्त ।।

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