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bhagwat katha lyrics भगवत कथा हिंदी
आत्मदेव ने अपने नवजात पुत्र के लिए धुंधली की सलाह के अनुसार उसकी छोटी बहन को बुला लिया। धुंधली की बहन बच्चे का पालन पोषण करने लगी। इधर तीन माह बाद आत्मदेव की गर्भवती गाय को भी संन्यासी महाराज का दिया आम का फल खाने से एक बच्चा हुआ, जिसका शरीर तो सुन्दर बालक का था, लेकिन कान गाय के समान थे। इस बच्चे का नाम रखा गया ‘गोकर्ण’ ।
उधर धुंधुली के नाटक से प्राप्त बच्चे का नाम ‘धुंधकारी’ रखा गया। आत्मदेव दोनों बच्चों का पालन-पोषण एवं शिक्षा-दीक्षा करने लगे। धुंधकारी बाल्यकाल से ही दुष्ट स्वभाव का हो गया। वह अपने साथ खेलनेवाले बच्चों को धक्का देकर कुएँ में गिरा देता। सयाना हुआ तो शराबी एवं वेश्यागामी हो गया।
सम्पत्ति का नाश करने लगा। गोकर्ण साधु स्वभाव के थे। वे विद्या अध्ययन एवं ज्ञान प्राप्ति की ओर उन्मुख हो गये। धुंधकारी ने पिता आत्मदेव की सारी अर्जित सम्पत्ति को शराब एवं वेश्या-गमन में नष्ट कर दिया और अन्ततोगत्वा एक दिन उसने धन नहीं रहने पर पिता आत्मदेव द्वारा छिपाकर रखी सम्पत्ति के लिए अपनी माँ को बहुत मारा-पीटा और छिपाकर रखे गहने, चांदी के वर्तन वगैरह बहुमूल्य वस्तुएँ उनसे छीन ली।
आत्मदेव सम्पत्ति के नाश एवं पुत्र धुंधकारी के चांडाल कर्म के कारण विलख-विलख कर रोने लगे। इस प्रकार “गोकर्णः पंडितो ज्ञानी धुन्धुकारी महाखलः” ।।
एक दिन धुन्धुकारी के कर्म से चिंतित वृद्ध आत्मदेव को रोते देख गोकर्ण ने उन्हें सांत्वना दी और समझाया कि पुत्र एवं सम्पत्ति के लिए रोना ठीक नहीं। सुख एवं दुःख आते-जाते रहते हैं। इसलिए बुद्धि सम रखनी चाहिए। हाड़, मांस, रक्त, मज्जा से बने इस शरीर के प्रति मोह नहीं करनी चाहिए।
आप स्त्री-पुत्र का मोह छोड़कर वन में जाकर भगवत् भजन करें एवं श्री भागवत पुराण के दशम स्कन्ध का पाठ करें क्योंकि इस संसार को क्षण भंगुर समझकर प्रभु का भक्त बनकर भगवत् भजन कीजिऐ एवं दुष्टों का संग त्यागकर साधुपुरुष का संग कीजिये।
किसी के गुण-दोष की चिन्ता मत करें क्योंकि पुत्र का पहला धर्म है कि पिता की उचित आज्ञा का पालन, दूसरा पिता की मृत्यु के बाद श्राद्ध करना, न केवल ब्राह्मणों को बल्कि सभी जाति के लोगें को भूरि-भूरि भोजन यानी तबतक खिलाना जबतक खानेवाला अपने दोनों हाथों से पत्तल को छापकर भोजन करानेवाले को रोक न दे। और, तीसरा कार्य है- गया में पिंडदान एवं तर्पण कार्य करना परन्तु ये तीनों लाभ आत्मदेवजी को धुंधकारी से नहीं मिला।
गोकर्णजी कहते हैं कि हे पिताजी- इस नश्वर शरीर के मोह को त्याग कर भक्ती करते हुये वैराग से रहकर साधु पुरुषों का संग करते हुये प्रभु को भजे ।
देहेऽस्थिमांसरुधिरेऽभिमतिं त्यज त्वं, जायासुतादिषु सदा ममतां विमुंच।
पश्यानिशं जगदिदं क्षणभंगनिष्ठं, वैराग्यरागरसिको भव भक्तिनिष्ठः ।।
धर्म भजस्व सततं त्यज लोकधर्मान् सेवस्व साधुपुरुषाञ्जहि कामतृष्णाम् ।
अन्यस्य दोषगुणचिन्तनमाशु-मुक्तवा, सेवाकथारसमहोनितरां पिब त्वं ।।
श्रीमद् भा० मा० ४/७ /७९/८०
bhagwat katha lyrics भगवत कथा हिंदी
अर्थात हे पिताजी यह शरीर जो हाड़, मांस, रक्त, मज्जा आदि से बने है इसके प्रति मोह को त्यागकर एवं स्त्री-पुत्र आदि के मोह को भी छोड़कर इस संसार को क्षणभंगुर देखते जानते हुए वैराग्य को प्राप्त कर भगवान की भक्ति में लग जायें।
पुनः संसारीक व्यहारों को त्यागकर निरन्तर धर्म को करते हुए कामवासना को त्यागकर साधुपुरुषों का संग करे एवं दुसरे के गुण दोषों की चिंता को त्याग करते हुए निरन्तर भगवान की मधुरमयी भागवत कथा को आप पान करें।
इसप्रकार गोकर्ण जी ने उपरोक्त श्लोको के माध्यम से अपने पिताजी को समझाया तो वह आत्मदेवजी जंगल में जाकर भजन करके परमात्मा को प्रप्त किये। परंतु वही आत्मदेवजी ने प्रारम्भ में सन्यासी महाराज का आज्ञा नहीं माने तो संपती एवं यश को समाप्त करके भारी कष्ट को सहे।
इसलिए इस कथा से उपदेश मिलता है कि साधु-महात्माओं के वचनों को, उनके उपदेशों को मानना चाहिए। अन्यथा आत्मदेव जैसा कष्ट उठाना पड़ता है।
धुंधुकारी की मुक्ति के लिए गोकर्ण का प्रयास
आगे उपरोक्त कथा से यह उपदेश मिलता है कि अपने सुकृत एवं कुकृत का कर्ता स्वयं मनुष्य ही होता है। गोकर्णजी का उपदेश है कि भागवतपुराण के दशम स्कन्ध का पाठ किया जाए तो आत्मदेव जैसा आज भी मुक्ती मिलती है।
अतः भगवत भक्तो को शास्त्रों की कथाओं को सुनकर अगली पीढ़ी हेतु उचित-अनुचित का विचार कर किसी कार्य का संकल्प और विकल्प करना चाहिए। ऋषियों ने “जीवेम शरदः शतम्”, “पश्येम शरदः शत्म” का उद्घोष किया है। सौ वर्ष जीयें, सौ वर्ष देखें।
लेकिन संसर्ग दोष, पर्यावरण दोष से सौ वर्ष जीने एवं सौ वर्ष तक देखने की कामना पूर्ण नहीं होती। आयु सौ वर्ष तक नहीं पहुँच पाती। खेती, व्यापार नौकरी, अध्ययन-अध्यापन करते हुए भगवान् का भजन करना चाहिए। नारायण कवच, गजेन्द्रमोक्ष पाठ या भागवतपुराण के दशम स्कन्ध का पाठ अवश्य करें।
अंग, बंग, कलिंग तथा सौराष्ट्र में भ्रमण के क्रम में केवल तीर्थस्थलों पर ही जाना चाहिए। लेकिन भगवान् के भजन करनेवाले को इन प्रदेशों के अन्य स्थानों के भी भ्रमण करने पर उनपर कोई असर नहीं पड़ता यानी बुरा फल नहीं होता।
जो भगवान् को भजता है, उसे भगवान् भजते हैं, और उनका उद्धार करते हैं। यह अकाट्य है, इसलिए स्वस्थ शरीर द्वारा भगवान् का भजन अवश्य करना चाहिए। सुकृत करनेवाले व्यक्ति द्वारा ही अंत समय में भगवान् का नाम आता है।
इसकी पुष्टि एक अन्य ग्रन्थ की आख्यायिका से होती है कि “एक सोने के व्यपारी थे जो स्वर्ण का व्यापार करते थे वे बार-बार कहते थे कि पहले लाभ कमा लें, अंत समय भगवान् का नाम ले लेंगे तो भी मेरा उद्धार हो जायगा।
एक बार उन्होंने अस्सी रूपये प्रति भरी के भाव से स्वर्ण खरीदा, लेकिन भाव हो गया साठ रूपये पति भरी, अतः घाटे की चिन्ता से वे बीमार पड़ गये। चिन्ता से बिमारी एवं विक्षिप्तता बढ़ती गयी। उनके चार पुत्र थे। पुत्र सोचते थे कि पिताजी कुछ सम्पत्ति छिपाकर रखे होंगे।
चिकित्सा में काफी धन खर्च हो गया। अन्त में पुत्रों ने सोचा कि अच्छी तरह चिकित्सा कराकर पिताजी से सम्पत्ति का ब्योरा ले लिया जाय। चिकित्सक आया, उसने बीमार स्वर्ण व्यपारी का बुखार मापा और कहा कि १०५ डिग्री बुखार है। दवा के प्रभाव से उस व्यपारी के मुख से आवाज निकली तो उसने अपने पुत्रों से पूछा कि तुमलोग क्यों खड़े हो। उन पुत्रों ने कहा कि अभी आप चुप रहें क्योंकि आपको १०५ डिग्री बुखार है।
सेठ ने समझा कि सोना १०५ रूपये प्रति भर होकर लाभ दे रहा है। ऐसा सोचकर सेठ जी बोले कि बेच दो, बेच दो यानि जल्द बेच दो, जल्द बेच दो उतना कहकर सेठ जी ने मृत्यु को प्राप्त किया। इसलिए हम भी अभी से भगवान् का भजन नहीं करेंगे तो अन्त में भगवान् की याद नहीं आयेगी, पूर्व संस्कार सिर पर चढ़कर अंत समय में भी बोलेगा। अतः इस कथा से सीख लेकर हमें भगवान् का भजन करना चाहिए।
इसप्रकार आत्मदेवजी वन में जाकर भगवान् की शरणागति की और श्रीगोकर्ण द्वारा कहे गये उपदेश का पालन करके श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्ध का पाठ करते हुए देह को त्याग कर भगवान् श्रीकृष्ण को प्राप्त किया।
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