bhagwat puran pdf श्रीमद् भागवत कथा

bhagwat puran pdf श्रीमद् भागवत कथा

वह चल लक्ष्मी को अचल बनानेवाले नारायण ही हैं। काम को वशीभूत करनेवाले कृष्ण नमनीय हैं। इसप्रकार द्वारका में श्रीकृष्ण भगवान् अपनी कार्य-व्यवस्था देखने लगे। इधर धर्मराज हस्तिनापुर में अपना राज-काज देख रहे थे।

आगे वे धर्मराज राज-काज चला तो रहे थे, लेकिन उनका चित्त भगवान् में ही लगा रहता था। उनका मन राज-काज में नहीं लगता था। वे ईश्वर से अपने धाम में बुलाने के लिए प्रार्थना करते रहते थे। धर्मराज भगवान् की शरण में जाने के लिए व्याकुल रहते थे। जिस तरह भूखे व्यक्ति को, फूलमाला का स्वागत अच्छा नहीं लगता उसी तरह धर्मराज को राज-काज अच्छा नहीं लगता था।

इधर अभीमन्यु की पत्नि उतरा के गर्भ से वह बालक परीक्षित प्रकट हुये अर्थात परीक्षित के जन्म की कथा है कि अभिमन्यु की पत्नी उतरा के गर्भ से प्रकट हुए परीक्षित् ने जन्म समय भगवान् को अंगूठे के बराबर स्वरूप में कुंडल पहने देखा था।
भगवान् उस स्वरूप में रक्षा कर रहे थे। चक्र के समान तेज गति से गदा को घुमाते हुए परीक्षित की रक्षा कर रहे थे परन्तु परीक्षित् को चक्र ही मालूम पड़ा। फिर ब्रह्मास्त्र की शक्ति समाप्त होने पर भगवान् वहाँ से हटे थे।
परीक्षित् ने माँ के गर्भ से शुभ मुहूर्त में बाहर आये तो धौम्य ऋषि तथा कृपाचार्य के द्वारा मांगलिक कार्य किये गये एवम् जातकर्म संस्कार किया गया। इधर जब राजा परीक्षित की जन्म के सामाचार सुने तो पुनः हस्तीनापुर में भगवान श्रीकृष्ण पधारे और राजा परीक्षित को लाड-प्यार दिये।
युधिष्ठिर ने ब्राह्णों को सुवर्ण, गौ, पृथ्वी तथा अन्न का दान किया। श्री परीक्षित् परमात्मा द्वारा रक्षित जीव थे। इसलिए बालक का नामकरण परीक्षित किया गया।
ऋषि मुनियों ने बताया कि यह बालक इक्ष्वाकु के समान प्रजापालक, राम के समान सत्यपालक, शिवि के समान असह्य तेज वाला, सिंह के समान महापराक्रमी, पृथ्वी के समान क्षमावान्, रन्तिदेव के समान उदार, ययाति के समान धार्मिक, बलि के समान धैर्यवान और प्रह्लाद के समान भगवद् भक्त होगा।
यह पृथ्वीरूपी गौ और धर्मरूपी वृष के रक्षार्थ कलि का निग्रह करेगा। शमीक-पुत्र शृंगी द्वारा प्रेरित तक्षक से अपनी मृत्यु सुनकर राजपाट का परित्याग कर गंगातट का आश्रय लेगा और वहाँ परम भागवत शुकदेव जी से ज्ञान लाभ कर परम पद को प्राप्त होगा। ब्राह्मणों ने राजा परीक्षित् की ऐसी कुण्डली बना दी। महाराज युधिष्ठिर ने ब्राह्मणों को दान दक्षिणा से प्रसन्न किया।

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इसके बाद धर्मराज ने अपनी जातियों तथा अन्य लोगों के वध के मार्जन के लिए अश्वमेघ यज्ञ करने का विचार किया परन्तु कर और प्रजादंड के सिवा अन्य मार्ग से धन मिलना संभव न देखकर धर्मराज को कुछ चिन्ता हुई।

भीम आदि ने आश्वस्त किया कि वे लोग धन, स्वर्णपात्र एवं सम्पत्ति लाएँगे। राजा मरु ने यज्ञ में ब्राह्मणों को बहुत सा दान दिया था। अतः वे ब्राह्मण इच्छानुसार दान लेकर शेष छोड़कर चले आये थे। वह धन लावारिश पड़ा था।
उस लावारिश धन को शुद्ध धन के रूप में लाकर धर्मराज को दिया गया। धर्मराज ने तीन अश्वमेघ यज्ञ किये। मृतक बन्धुओं के प्रायश्चित करने से तथा यज्ञ करने से धर्मराज के मन में शान्ति हो गयी और वे प्रसन्न हो गये।

श्रीविदुरजी तीर्थयात्रा से लौटे, धृतराष्ट्र का शरीर त्याग

शास्त्रो में प्रायः यज्ञ का वर्णन किया गया है अर्थात् यज्ञ का मतलब “यज्ञोवै विष्णुः” यानि जिस अनुष्ठान के माध्यम से भगवान की पूजा की जाती है, उसी का नाम यज्ञ है। जब हम विष्णु भगवान् की यज्ञ में अराधना करते हैं, तो हमें पुण्य लाभ होता है।

यज्ञ में सारे देवताओं की पूजा की जाती है। यज्ञ एक ऐसा अनुष्ठान है, जिसमें तैंतीस करोड़ देवता, अपनी पूजा का अंश लेते हैं और देवताओं हमारी संतति का कल्याण करते हैं। यज्ञ में पूरे समाज का संगठन होता है।
समाज के पूरे लोगों का सहयोग होता है एवम् संगठन बनता है। यज्ञ से वैर बढ़े तो उसका फल बुरा होता है। यज्ञ से संगतिकरण एवं संगठन की भावना विकसित होती है। इसमें सबकी अन्तरात्मा से सहयोग होता है।
यज्ञ में वाणी की मधुरता से सेवा करने, श्री संतों के दर्शन, प्रवचन श्रवण एवं दान करने का पुण्य अवसर मिलता है। यज्ञ में सारी इन्द्रियाँ भगवत् कार्य में लग जाती हैं। यज्ञ से देवता, पितर प्रसन्न होते हैं और प्रसन्न होकर वे लोग हमें सुख समृद्धि देते हैं।
धर्मराज भी अश्वमेघ यज्ञ कर प्रसन्नचित्त हो गये तथा राज काज में समय बिताने लगे। इधर वह विदुरजी महाराज जो महाभारत संग्राम के समय तीर्थयात्रा में चले गये थे वे विदुरजी महाभारत संग्राम समापन के बाद हस्तिनापुर लौट आये।

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जिस समय महाभारत का संग्राम हो रहा था, उस समय दुर्योधन के कुवचन सुनकर विदुरजी ने घर का त्याग कर दिया था। महाभारत युद्ध के समय विदुरजी हस्तिनापुर या कुरुक्षेत्र में नहीं थे। वे तीर्थ पर चले गये थे। घर में परिवार के लोग अच्छी बात नहीं सुने, तो घर परिवार की विधि-व्यवस्था छोड़ देनी चाहिए।

कौरव पक्ष के लोग विदुरजी की बात नहीं मानते थे। विदुरजी को दुर्योधन अपशब्द बोलता था। उन्हें वहाँ से हट जाने के लिए कहता था। ऐसी स्थिति देखकर विदुरजी महाभारत युद्ध से पहले ही तीर्थ पर चले गये थे।
तीर्थयात्रा में विदुरजी ने मैत्रेय ऋषि से आत्मज्ञान भी प्राप्त किया था। तीर्थ यात्रा करते-करते, महाभारत युद्ध की समाप्ति होने पर विदुरजी हस्तिनापुर लौटे।
विदुरजी का आगमन सुनकर युधिष्ठिर तथा पूरा पांडव परिवार अति प्रसन्न हो गया। वे उन्हें पाकर धन्य धन्य हो गये। श्री विदुरजी को सेवा सत्कार एवं भोजन करा लेने के बाद युधिष्ठिर ने उनके द्वारा किये गये पुर्व उपकारों को स्मरण करते हुए कहा कि आपने लाक्षागृह में रक्षा हेतु सुरंग बनाने की सलाह दी एवं उस सुरंग से हम बाहर आ गये।
फिर नदी में नाव की व्यवस्था कर नदी पार करा दी और वहाँ से दूर हटा दिया। इस तरह आपने हम पांडवों को प्राणों की रक्षा की। युधिष्ठिर ने पूछा कि प्रवास काल में आप हमलोगों को याद करते थे या नहीं ?
किन-किन स्थानों पर गये ? किन-किन ऋषियों से मिले? परम हितैषी यदुवंशी द्वारका में अच्छी तरह हैं न ? आपने उन्हें कहीं तीर्थ यात्रा में देखा हो तो बतायें। धर्मराज द्वारा ऐसे प्रश्न किये जाने पर विदुरजी ने सारा वृतान्त बताया। लेकिन द्वारका में यदुकुल के क्षय की कथा नहीं कही। वह विदुरजी शापवश धराधाम पर आये थे।
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