चौबीस अवतारोंकी कथा bhaktamal katha
जय जय मीन बराह कमठ नरहरि बलि-बावन।
परसुराम रघुबीर कृष्ण कीरति जग पावन॥
बुद्ध कलक्की ब्यास पृथू हरि हंस मन्वंतर।
जग्य रिषभ हयग्रीव धुरुव बरदैन धन्वंतर ॥
बद्रीपति दत कपिलदेव सनकादिक करुना करौ।
चौबीस रूप लीला रुचिर (श्री) अग्रदास उर पद धरौ॥५॥
मंगलमय मीन, वाराह, कच्छप, नरसिंह तथा वामन आदि भगवान्के चौबीस अवतारोंकी जय हो, जय हो, इनका मंगल हो, हम इन्हें नमस्कार करते हैं। परशुराम, रघुवीर श्रीराम एवं श्रीकृष्ण आदि सभी अवतारोंकी पवित्र कीर्ति संसारको पवित्र करनेवाली है।
बुद्ध, कल्कि, व्यास, पृथु, हरि, हंस, मन्वन्तर, यज्ञ, ऋषभ, हयग्रीव, ध्रुववरदायी श्रीहरि, धन्वन्तरि, नर-नारायण, दत्तात्रेय, कपिलदेव तथा सनक-सनन्दनसनातन और सनत्कुमार सभी मुझ दासपर कृपा करें। चौबीसों अवतारोंके रूप एवं उनकी लीलाएँ अत्यन्त सुन्दर ।
इन अवतारोंके समेत गुरुदेव श्रीअग्रदासजी महाराज मेरे हृदयमें अपने श्रीचरण स्थापित करें। (अथवा सभी अवतार मुझ अग्रदासके हृदयमें निज पदकमल रखें)॥५॥
श्रीप्रियादासकृत भक्तिरसबोधिनी टीका
जिते अवतार सुखसागर न पारावार करें विस्तार लीला जीवन उधार कौं
जाहि रूप माँझ मन लागै जाको, पागै तहीं, जागै हिय भाव वही, पावै कौन पार कौं॥
सब ही हैं नित्त ध्यान करत प्रकाशैं ॥ चित्त, जैसे रंक पावें वित्त, जो पै जानै सार कौं। के
शनि कुटिलताई, ऐसे मीन सुखदाई, अगर सुरीति भाई, बसौ उर हार कौं॥१४॥
भक्तवत्सल भगवान्के जितने भी अवतार हैं, सभी शाश्वत सुखके समुद्र हैं, उनके नाम, रूप, लीला आदिका ओर-छोर नहीं है। जीवोंका उद्धार करनेके लिये अवतार लेकर भगवान् लीलाओंका विस्तार करते हैं। जिस भक्तका मन भगवान्के जिस रूपमें लग जाता है, वह उसी रूपमें पग (रम) जाता है और उसमें उसी रूपसे सम्बन्धित प्रेम-भाव जग जाता है।
भगवान्के सभी रूप अनन्त सुखके सागर हैं, अतः प्रेमभावकी तरंगोंका आर-पार भला कौन पा सकता है! सभी अवतार नित्य हैं और ध्यान करते ही हृदयको प्रेमानन्दसे प्रकाशित कर देते हैं। तब वह भक्त ऐसा सुखी हो जाता है, जैसे दरिद्र धन पा गया हो; पर इस प्रकारका दुर्लभ अनुभव तभी होता है, जब वह गम्भीर रहस्यको समझे।
जिस प्रकार केशोंकी कुटिलता दूषण न होकर भूषण है, उसी प्रकार मीन, वाराह आदि भगवान्के अवतार भी भक्तोंको सुख देनेवाले हैं। सभी अवतार नित्य एवं पूर्ण हैं, श्रीअग्रदेवजीकी यह सुन्दर मान्यताकी रीति मुझे बहुत अच्छी लगी। चौबीस अवतारोंकी यह माला मेरे हृदयमें हारकी तरह बसे॥ १४ ॥ , >
चौबीस अवतारोंकी कथा bhaktamal katha
मूलतः यह छप्पय श्रीनाभादासजीद्वारा रचित पहला छप्पय है। प्रारम्भमें मंगलाचरणके दोहोंमें एकसे चारतक संख्या दी गयी है, उस आधारपर यहाँ पाँचवीं संख्या दी गयी है।
अचिन्त्य परमेश्वरकी अतयं लीलासे त्रिगुणात्मक प्रकृतिद्वारा जब सृष्टि-प्रवाह होता है तो उस समय रजोगुणसे प्रेरित वे ही परब्रह्म परमात्मा सगुण होकर अवतार ग्रहण करते हैं। वस्तुतः यह जगत् परमात्माका लीला-विलास है, लीलारमणका आत्माभिरमण है, इसलिये भगवान् अपनी लीलाको चिन्मय बनानेके लिये अपने ही द्वारा निर्मित जगत्में अन्तर्यामीरूपसे स्वयं प्रविष्ट भी हो जाते हैं ‘तत्सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत्।’
वे परम प्रभु अजायमान होते हुए भी बहुत रूपोंमें लीला करते हैं ‘अजायमानो बहुधा विजायते।’ उनकी यह लीला उनके अपने आनन्द-विलासके लिये होती है, जिसके फलस्वरूप भक्तोंकी कामनाएँ भी पूर्ण हो जाती हैं। भगवान्का अपने नित्य धामसे पृथ्वीपर लीला-अवतरण ही ‘अवतार’ कहा जाता है।
कल्पभेदसे भगवान्ने अनेक अवतार धारणकर अपने लीला-चरितसे सन्तजन-परित्राण, दुष्टदलन और धर्मसंस्थापनके कार्य किये हैं। उनके अनन्त अवतार हैं, अनन्त चरित्र हैं और अनन्त लीला-कथाएँ हैं। यहाँ उनमेंसे चौबीस प्रमुख अवतारोंका संक्षिप्त निदर्शन प्रस्तुत किया जा रहा है ।
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