श्रीनाभाजीका चरित्र वर्णन bhaktamal katha
हनूमान वंश ही में जनम प्रशंस जाको भयो दृगहीन सो नवीन बात धारिये।
उमरि बरष पाँच मानि कै अकाल आँच माता वन छोड़ि गयी विपति विचारिये॥
कील्ह और अगर ताहि डगर दरश दियो लियो यों अनाथ जानि पूछी सो उचारिये।
बड़े सिद्ध जल लै कमण्डलु सों सींचे नैन चैन भयो खुले चख जोरी को निहारिये ॥ १२॥
श्रीनाभाजीका जन्म प्रशंसनीय हनुमान-वंशमें हुआ था। आश्चर्यजनक एक नयी बात यह जानिये कि ये जन्मसे ही नेत्रहीन थे। जब इनकी आयु पाँच वर्षकी हुई, उसी समय अकालके दुःखसे दुःखित माता इन्हें वनमें छोड़ गयी। माता और पुत्र दोनोंके लिये यह कितनी बड़ी विपत्ति थी।
इसे आपलोग सोचिये। दैवयोगसे श्रीकोल्हदेवजी और श्रीअग्रदेवजी–दोनों महापुरुष उसी मार्गसे दर्शन देते हुए निकले। बालक नाभाजीको अनाथ जानकर जो कुछ दोनोंने पूछा, उसका उन्होंने उत्तर दिया।
वे बड़े भारी सिद्ध सन्त थे। उन्होंने अपने कमण्डलुसे जल लेकर नाभाजीके नेत्रोंपर छिड़क दिया। सन्तोंकी कृपासे नाभाजीके नेत्र खुल गये और सामने दोनों सन्तोंको उपस्थित देखकर इन्हें परम आनन्द हुआ ॥ १२॥
पाँय परि आँसू आये कृपा करि संग लाये कील्ह आज्ञा पाइ मन्त्र अगर सुनायो है।
गलते प्रगट साधु सेवा सो विराजमान जानि अनुमानि ताही टहल लगायो है।
चरण प्रछालि सन्त, सीथ सों अनन्त प्रीति जानी रस रीति ताते हृदै रंग छायो है।
भई बढ़वारि ताकौ पावै कौन पारावार जैसो भक्तिरूप सो अनूप गिरा गायो है॥१३॥
दोनों सिद्ध महापुरुषोंके दर्शनकर नाभाजी उनके चरणों में पड़ गये। उनके नेत्रोंमें आँसू आ गये। दोनों सन्त कृपा करके बालक नाभाजीको अपने साथ लाये। श्रीकील्हदेवजीकी आज्ञा पाकर श्रीअग्रदेवजीने इन्हें राममन्त्रका उपदेश दिया और ‘नारायणदास’ यह नाम रखा। गलता आश्रम (जयपुर)-में साधुसेवा प्रकट प्रसिद्ध थी।
वहाँ सर्वदा सन्त-समूह विराजमान रहता था। श्रीअग्रदेवजीने सन्तसेवाके महत्त्वको जानकर और सन्तसेवासे ही यह समर्थ होकर जीवोंका कल्याण करनेवाला बनेगा-यह अनुमानकर नाभाजीको सन्तोंकी सेवामें लगा दिया।
सन्तोंके चरणोदक तथा उनके सीथ-प्रसादका सेवन करनेसे श्रीनाभाजीका सन्तोंमें अपार प्रेम हो गया। इन्होंने भक्तिरसकी रीतियाँ जान लीं। इससे इनके हृदयमें अद्भुत प्रेमानन्द छा गया।
हृदयमें भक्त- -भगवान्के प्रेमकी ऐसी अभिवृद्धि हुई कि जिसका ओर-छोर भला कौन पा सकता है! इस प्रकार जैसे श्रीनाभाजी मूर्तिमान् भक्तिके स्वरूप हुए, वैसे ही सुन्दर वाणीसे इन्होंने भक्तमालमें भक्तोंके चरित्रोंको गाया है।॥ १३॥
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