shri bhagwat puran
भागवत पुराण कथा भाग-11
इसप्रकार आगे कि कथा को लिखते हुये महर्षि वेदव्यास ने कहा है-
एक बार गोमती नदी के पावन तट पर पावन तीर्थ क्षेत्र नैमिषारण्य में अठासी हजार संत, ऋषियों सहित शौनकादि ऋषिगण उपस्थित हुए तथा श्रीभगवान् की केवल प्राप्ति के उद्देश्य से हजार वर्षों में पूर्ण होनेवाले यज्ञादि का अनुष्ठान किया। नित्य यज्ञादि करने के बाद समय मिलने पर कुछ न कुछ भगवत् चर्चा भी करते थे।
उस अनुष्ठान में ऐसे भी तपस्वी संत उपस्थित थे जिनकी तपस्या के काल में ही चारों युग कितने बार बदल चुके थे। उसी नैमिषारण्य के धर्मक्षेत्र में श्री व्यास जी के शिष्य एवं रोमहर्षण सूतजी के पुत्र उग्रश्रवा सूत जी भी पधारे थे।
एक दिन उसी महायज्ञ के अवसर पर प्रातः कालीन हवनादि करने के बाद सभी संत ज्ञानसत्र के सभामंडप में बैठे हुए थे तो उसीसमय अपने प्रवास आश्रम से निकलकर श्रीउग्रश्रवा सूत जी भी वहीं पर उपस्थित हो गये। ज्ञानसत्र में उपस्थित सबलोगों ने खड़े होकर यथायोग्य श्रीसूत जी का सत्कार किया एवं व्यासगदी पर उन्हें बैठाकर श्रीसूत जी से श्रीशौनक जी ने कहा हे सूत जी! आप व्यासजी के शिष्य हैं ।
शिष्य का मतलब होता है कि जो गुरु के उपदेश को अपने आचरण में लेता है और प्रचार भी करता हो तथा जिसपर गुरु का अनुशासन हो, वह गुरु की आज्ञा मानने वाला हो, गुरु के अनुशासन पर जो चलता हो, वही शिष्य है। गुरु का भी मतलब होता है कि जो भगवान् की प्राप्ति की प्यास को बढ़ा दे या जगा दे तथा धर्म में लगाकर अधर्म से अलग करके, आसक्ति का त्याग करा दे, वह गुरु है ।
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आप इतिहास पुराण के ज्ञाता हैं तथा श्रीव्यासजी जो रहस्य जानते है, उसे आप भी पूर्ण रूप से जानते हैं। अतः आप कृपा कर हमारी जिज्ञासा शान्त करें।
किं श्रेयः शास्त्र सारः कः स्वावतारः प्रयोजनम् । किं कर्म केवताराश्च धर्मः कः शरणं गताः ।।
१. मनुष्य को अथवा श्री वैष्णव लोगों को भगवान् की प्राप्ति के लिए क्या करना चाहिए ? २. मनुष्य के लिए मुख्य श्रेय का साधन क्या है ? ३. शास्त्रों में जो कुछ वर्णन किया गया है, उसका सार क्या है ? ४. भगवान् देवकी के पुत्र रूप में किस कार्य के लिए अवतीर्ण हुए थे ? ५. भगवान् के अद्भुत चरित्रों के बारे में बतायें जिसे कवियों, ऋषियों ने गाया हैं फिर भगवान् के अवतार की कथाओं को भी सुनाये । ६. यह भी बतायें कि श्रीकृष्ण भगवान् जब अपने धाम को चले गये तब निराश्रय धर्म किसकी शरण में गया ? श्रीसूतजी ने ऋषियों के प्रश्नों को सुनकर प्रसन्न होकर सबसे पहले गुरुपुत्र एवं गुरुभ्राता श्री शुकदेवजी को ध्यान करते हुये दो श्लोकों का उच्चारण करके वन्दन किया-
यः स्वानुभावमखिलश्रुतिसारमेक मध्यात्मदीप मतितिर्षतां तमोन्धम् ।
संसारिणां करुणयाह पुराणगुह्मं तं व्याससूनुमुपयामि गुरुं मुनीनाम् ।।
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शौनक जी यह श्रीमद्भागवत महापुराण आत्म स्वरूप का अनुभव कराने वाला है और समस्त वेदों का सार है अज्ञान अंधकार में पड़े हुए और इस संसार सागर से पार पाने के इच्छुक प्राणियों पर करूणा कृपा करके श्री सुखदेव जी ने यह अध्यात्म दीप प्रज्वलित किया है ऐसे व्यास जी के पुत्र और प्राणियों के गुरु श्री सुखदेव जी को मैं प्रणाम करता हूं उन की शरण ग्रहण करता हूं ।
नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम् । देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जय मुदीरयेत् ।।
फिर सरस्वती एवं व्यासजी को प्रणाम करके फिर श्रीसूतजी शैनकादि ऋषियों के प्रश्नों को सुनकर बहुत प्रसन्न होते हुए बोले कि हे शौनकजी ! यह प्रश्न लोक मंगलकारी है। ऐसे भगवान् श्रीकृष्ण सम्बन्धी प्रश्नों से लोगों का कल्याण होता है एवं आत्मा को शांति मिलती है, परन्तु यह कार्य तब पूर्ण होता है जब कथा में हम बैठें।
कथा सुनने बैठें तो मानव का उद्देश्य पूर्ण हो जाता है। अतः कथा में बैठने के लिए मन का एकाग्र होना चाहिये। उन मन को एकाग्र करने के लिए भगवान की कथा श्रेष्ठ है जीन भागवान की परिभाषा को बतलाते हुए ऋषियों ने कहा है जो संसार के ज्ञान–अज्ञान, जन्म-संहार, भूतों की गति – अगति को जानता है उसको भगवान् कहते हैं या वही भगवान् है।
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श्री सूतजी ने ऋषियों द्वारा कहे गये प्रश्नों का उत्तर देते हुए बताया कि हे ऋषियों-
( 1 ) मनुष्य को अथवा श्री वैष्णव लोगों को भगवान् की प्राप्ति के लिए भगवान् की शरणागति करना चाहिये क्योकि धर्म का प्रयोजन भगवान के शरणागति से हि पूर्ण होता हैं वह भगवान सबके पति एवं रक्षक भी हैं। अतः उन श्री परमात्मा की कथा सुनें एवं अराधना भी करें। ऐसा करने से अविचल भक्ति हो जाती है।
यही प्रभु प्राप्ति का उपाय है। (2) यज्ञ, तप, वेदाध्ययन भगवत् प्राप्ति के लिए उपाय हैं या साधन हैं यानी अतः यहीं श्रेय का साधन है। ( 3 ) शास्त्रो में जो कुछ भी वर्णन किया गया है जैसे- यज्ञ, तप, दान आदि ये सभी साधन का सार परमात्मा के श्रीचरणों में प्रीति के लिए ही हैं या शरणागति के लिए हैं यही शास्त्रों का सार है। (4) वह प्रभु अपनी लीला करने एवं भक्तों को कृतार्थ कर दुष्टों का संहार, धर्म की स्थापना करने के कार्य के लिए ही श्री देवकी के पुत्र श्रीकृष्ण भगवान अवतार लिये थे।
(5) भगवान् ने अनेक अद्भुत चरित्र किये हैं जैसे पूतना – कंस आदि का वध तथा कारागार से गोकुल आदि में पहुँचना एवं गोवर्धन आदि को उठाना, वह भगवान् ने अनन्त अवतार लिया जैसे राम-कृष्ण, वामन, नृसिंह आदि, (6) जब प्रभु अपने धाम चले गये तो वह धर्म ने एकमात्र भागवत कथा में आश्रय लिया ।
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आगे श्रीसुतजी ने कहा कि वह प्रभु के अनन्त अवतारों में प्रभु के मुख्य अवतार चौबीस हैं-उन अवतारों के मंगलमय नाम हैं । १. सनकादि महर्षियों का अवतार, २. वराहावतार, ३. नारदावतार, ४. नर-नारायणावतार, ५. कपिलावतार, ६. दत्तात्रेय अवतार, ७. यज्ञावतार, ८. ऋषभदेवावतार, ६. पृथु का अवतार, १० मत्स्यावतार, ११ कूर्मावतार, १२. धन्वन्तरि अवतार, १३. मोहिनी अवतार, १४. नृसिंहावतार, १५. वामनावतार, १६. परशुरामावतार, १७ व्यासावतार, १८ रामावतार, १६. बलदेवावतार, २०. श्रीकृष्णावतार, २१. हरि अवतार, २२. हंसावतार, २३. बुद्धावतार, २४. कल्कि अवतार । इसके अलावा प्रभु का हयग्रीव का भी अवतार हुआ है। यहाँ पर दस अवतार की गणना (मोहिनी एवं धन्वन्तरि को छोड़कर) करने पर मत्स्यावतार प्रथम तथा रामावतार सातवाँ होता है, परन्तु २४ अवतार की गणना करने पर मत्स्यावतार दसवाँ एवं रामावतार अठारहवाँ होता है। इस प्रकार इन चौबीसों अवतारों का श्रवण भजन करने से मनुष्य का कल्याण होता है एवं वह दुःख सागर से निवृति पाता है तथा आसक्ति को त्याग कर संसार बंधन से मुक्त होता है।
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अन्यत्र ग्रन्थो में प्राचीन एक आख्यायिका है कि एक सेठ थे। उनका लक्ष्य केवल अर्थ अर्जित करना था। लक्ष्मी की कृपा जिसपर होती है वह किसलय युक्त पौधे के समान हो जाता है। सेठजी भी लहलहा रहे थे। वे वृद्ध हो चले थे। संयोगवश व्यापार में घाटा हो गया। उन्हें चिन्ता बढ़ गयी। अब क्या होगा ? बोल भी नहीं पाते थे, बीमार हो गये। मन ही मन रोते थे।
सोचते-सोचते बोलने की क्षमता खो बैठे। मरणासन्न हो गये। पुत्रों ने वैद्य को बुलाया ताकि पिताजी द्वारा कम से कम छिपाकर रखी सम्पत्ति की जानकारी तो मिल जाय । वैद्यजी ने दवा दी। दवा के प्रभाव से मरणासन्न सेठजी की चेतना जगी। उन्होंने आँखें खोलीं तो सामने देखा कि बछड़ा झाडू चबा रहा था ।
वे पुत्रों को इशारा करने लगे, तो पुत्र पास आकर पूछने लगे कि हे पिताजी क्या आज्ञा है। तब सेठजी बोले ‘हमको क्या देख रहे हो, देखो उधर बछड़ा झाडू चबा रहा है और उसके बाद उन सेठ के प्राण पखेरु उड़ गये । यही आसक्ति है, जो छूटती नहीं परन्तु भगवान् के चौबीस अवतारों के भजन, चिन्तन से आसक्ति छूटती है एवं परमात्मा की कृपा होती है तथा आसक्ति से मुक्ति मिलती है।
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एक समय श्रीशुकदेवजी महाराज ने राजा परीक्षित को भगवत् स्वरूप श्रीभागवत की कथा सुनायी थी । आगे शौनकजी ने सूतजी से कहा की हे सुतजी ! जो कथा श्रीशुकदेवजी ने गंगा तट पर शुकताल में राजा परीक्षित् को सुनायी थी, वही कथा सुनायें तथा यह भी बतलायें कि वह भागवत कथा किस कारण से, किस स्थान पर और क्यों सुनायी गयी एवं किस भावना से प्रेरित होकर व्यासजी ने भागवत पुराण की रचना की ?
सौनक जी यह भागवत नाम का पुराण वेदों से सम्मत है इसे मैंने श्री सुखदेव जी की कृपा से उन्हीं के अनुग्रह से जव वेराजा परीक्षित को कथा सुना रहे थे उसी समय मैंने भी इसका अध्ययन किया ।
तदपि जथा श्रुत जस मति मोरी । कहिहंउ देखि प्रीति अति तोरी ।।
इसी को जैसा मैंने सुना और जितना मेरी बुद्धि ने ग्रहण किया उसी के अनुरूप में तुम लोगों को सुनाऊंगा । सौनक जी पूछते हैं—
कस्मिन युगे प्रवृत्तेयं स्थाने वा केन हेतुना । कुतः सन्चोदितः कृष्णः कृतवान संहितां मुनिः ।।
इस श्रीमद् भागवत महापुराण का निर्माण वेदव्यास जी ने किस युग में किया किस स्थान पर तथा किस कारण से किया तब श्री सूतजी कहते हैं—–