श्रीहरि द्वारा ब्रह्मा जी को चतुश्लोकी भागवत का उपदेश
चतुः श्लोकी भागवत अर्थ सहित chatushloki bhagwat
भगवान श्री हरि नारायण ने सृष्टि के आदि में जब ब्रह्मा जी को आदेश दिया कि आप सृष्टि का निर्माण करें तब ब्रह्मा जी ने कहा-
आप मुझे ज्ञान प्रदान कीजिए जिससे जगत की सृष्टि करने पर भी मैं उसमें मोहित ना होउं उस समय भगवान ने मुझे चतुश्लोकी भागवत का उपदेश दिया|
इन चतुश्लोकी भागवत के पहले इस लोक में परमात्म तत्व का ब्रह्म तत्व का वर्णन किया गया है ,दूसरे मे माया तत्व का वर्णन किया गया है तीसरे में जीव तत्व का और चौथे श्लोक में संसार से मुक्त होने का उपाय बताया गया हैै…
चतुः श्लोकी भागवत अर्थ सहित chatushloki bhagwat
परमात्म तत्व का ब्रह्म तत्व का वर्णन-
अहमेवासमेवाग्रे नान्यद् यत् सदसत् परम्।
पश्चादहं यदेतच्च योऽवशिष्येत सोऽस्म्यहम् ॥(१)
भावार्थ:- श्री भगवान कहते हैं – सृष्टि के आरम्भ होने से पहले केवल मैं ही था, सत्य भी मैं था और असत्य भी मैं था, मेरे अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं था। सृष्टि का अन्त होने के बाद भी केवल मैं ही रहता हूँ, यह चर-अचर सृष्टि स्वरूप केवल मैं हूँ और जो कुछ इस सृष्टि में दिव्य रूप से स्थिति है वह भी मैं हूँ, प्रलय होने के बाद जो कुछ बचा रहता है वह भी मै ही होता हूँ।(१)
माया तत्व का वर्णन-
ऋतेऽर्थं यत् प्रतीयेत न प्रतीयेत चात्मनि।
तद्विद्यादात्मनो मायां यथाऽऽभासो यथा तमः ॥(२)
भावार्थ:- मूल तत्त्व आत्मा जो कि दिखलाई नहीं देती है, इसके अलावा सत्य जैसा जो कुछ भी प्रतीत देता है वह सभी माया है, आत्मा के अतिरिक्त जिसका भी आभास होता है वह अन्धकार और परछांई के समान मिथ्या है।(२)
जीव तत्व का वर्णन-
यथा महान्ति भूतानि भूतेषूच्चावचेष्वनु।
प्रविष्टान्यप्रविष्टानि तथा तेषु न तेष्वहम्॥(३)
भावार्थ:- जिसप्रकार पंच महाभूत (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश) संसार की छोटी या बड़ी सभी वस्तुओं में स्थित होते हुए भी उनसे अलग रहते हैं, उसी प्रकार मैं आत्म स्वरूप में सभी में स्थित होते हुए भी सभी से अलग रहता हूँ।(३)
संसार से मुक्त होने का उपाय वर्णन-
एतावदेव जिज्ञास्यं तत्त्वजिज्ञासुनाऽऽत्मनः।
अन्वयव्यतिरेकाभ्यां यत् स्यात् सर्वत्र सर्वदा॥(४)
भावार्थ:- आत्म-तत्त्व को जानने की इच्छा रखने वालों के लिए केवल इतना ही जानने योग्य है कि सृष्टि के आरम्भ से सृष्टि के अन्त तक तीनों लोक (स्वर्गलोक, मृत्युलोक, नरकलोक) और तीनों काल (भूतकाल, वर्तमानकाल, भविष्यकाल) में सदैव एक समान रहता है, वही आत्म-तत्त्व है।(४)