दृष्टांत महासागर drishtant mahasagar

श्री माधव दास जी का भगवान श्री कृष्ण से सख्य भाव था, अतः भगवान उनसे विविध प्रकार के विनोद पूर्ण कौतुक किया करते थे । एक दिन जब आप भगवान का दर्शन करने लगे तो देखा कि भगवान कुछ उदास हैं, आपने पूछा प्रभु आज आप कुछ उदास से प्रतीत हो रहे हैं क्या बात है ? श्री ठाकुर जी ने कहा माधव दास जी क्या बताएं साल बीता जा रहा है और पका कटहल खाने को नहीं मिला ! राजा जी के बाग में कटहल खूब फल हैं और पके भी हैं  अगर आप सहयोग दें तो आज रात में बाग में चलकर कटहल खाया जाए ।

आपने कहा पर वो बचपन में तो मुझे पेड़ पर चढ़ने का अभ्यास था , अब तो मैं बूढ़ा हो गया हूं मेरे हाथ पाव हिलते हैं । अतः पेड़ पर चढ़ने में तो मुश्किल होगी ? श्री बलराम जी भी इस विनोद में रस ले रहे थे उन्होंने कहा माधव दास जी हम चढ़ने में सहायता कर देंगे, आपको कोई कठिनाई नहीं होगी ! बात तय हो गई श्री कृष्ण बलराम और माधव दास जी आधी रात में चुपचाप राजा जी के बाग में घुस गए ! श्री बलराम जी ने सहारा देकर माधव दास जी को पेड़ पर चढ़ा दिया माधव दास जी ने बड़े और खूब पके फल देखकर कई कटहल नीचे गिराए , दोनों भाइयों ने खूब जी भर कर कटहल खाए ।

उधर फलों की गिरने की आवाज सुनकर बाग के माली जग गए और आवाज की दिशा में लाठी लेकर दौड़े, उन्हें आता देखकर कृष्ण बलराम तो वहां की चहारदीवारी लांघ कर भाग गए । पर बेचारे माधव दास जी रंगे हाथों पकड़ लिए गए मालियों ने रात्रि के अंधेरे में पहचाना नहीं तो खूब डन्डे की मार लगाई और रात भर बांधकर भी रखा । प्रातः काल सैनिकों ने बंदी अवस्था में ही राजा के सम्मुख दरबार में पेश किया ,राजा ने देखते ही पृथ्वी पर गिर पड़े और सष्टांग दंडवत प्रणाम किया  और मालियों द्वारा किये अपराध के लिए क्षमा मांगी और मालियों को दंड देना चाहा । इस पर श्री माधव दास जी ने कहा राजन मालियों ने अपने कर्तव्य का अच्छी प्रकार से पालन किया है उन्होंने कोई अपराध नहीं किया था । इन्हें पुरस्कार देना चाहिए राजा ने आपके अनुसार मालियों को बारह बीघे जमीन का पट्टा पुरस्कार स्वरूप दे दिया ।

तत्पश्चात आधी रात में बाग में आने का कारण जानना चाहा ।माधवदास जी ने उन्हें सारी बात बताई थी राजाभाव विभोर हो गए उन्होंने कहा प्रभु मेरे धन्य भाग हैं कि आप मेरे बाग में आए । अब यह बाग आपकी ही सेवा में प्रस्तुत हैं ।यह कहकर राजा ने ताम्रपत्र पर लिखकर बाग को श्री ठाकुर जी के श्री चरणों में समर्पित कर दिया ।
माधवदास जी के ऐसे अनेक चरित्र हैं ।

Top 100 + Krishna Bhajan Lyrics List

दृष्टांत महासागर drishtant mahasagar
दृष्टांत महासागर drishtant mahasagar

दृष्टांत महासागर drishtant mahasagar

2- ईश्वर जो कुछ करता है उसमें अच्छा ही है ।

एक राजा साहब के सामने तलवार आई वो देखने लग गए  इसकी धार कैसी है तो उनका अगूठा ही कट गया , जब कट गया अंगूठा तो मंत्री महोदय के मुख से निकला कि जो हुआ सो अच्छा हुआ । राजा को बड़ा क्रोध आया कि हमारा तो अंगूठा कट गया और यह पट्ठा बोल रहा है कि अच्छा हुआ उसको जेल में डालो, तो तुरंत उसको जेल में भेज दिया गया । कुछ महीने में अंगूठा अच्छा हो गया वे कहीं घूमने फिरने के लिए गए और वहां उनको डाकू ने पकड़ लिया कि राजा का बलिदान करेंगे इससे बड़ा फायदा होगा जब उनको स्नान कराकर वस्त्र आभूषण पहना कर देवी के सामने ले गए तब बलिदान करने वाले पुरोहित ने कहा कि इस प्रणी का तो अंगूठा ही नहीं है, अंग भंग है बलि देने लायक नहीं है ।

जो सर्वांग पूर्ण होता है उसकी बलि होती है , तो राजा बच गए । राजा को ख्याल आया कि मंत्री ने उस दिन कहा था कि जो हुआ अच्छा हुआ लौटकर घर में आए जेल खाने गए मंत्री को छुड़ाया और उससे बोले कि तुमने बिल्कुल ठीक कहा था कि मेरा अंगूठा कट गया तो अच्छा हुआ, अंगूठा तो कट गया सिर बच गया बहुत अच्छा हुआ – बहुत अच्छा हुआ ! लेकिन अब तुम यह बताओ कि तुम तो जेल में डाले गए तो तुम्हारे साथ कैसे अच्छा हुआ, तो मंत्री ने कहा कि महाराज हम जेल में ना होते तो हम भी आपके साथ जाते और आपका सिर तो बच जाता और हमारा कट जाता । देखो ईश्वर ने एक को जेल में डाल कर उसका अच्छा किया और एक का अगूंठा काटकर उसका अच्छा किया , ईश्वर जो कुछ करता है उसमें अच्छा ही है ।

स देवो यदेव कुरुते तदेव मङ्गलाय । वह परमेश्वर जो करता है उसमें हमारा मंगल है , जिस दिन भूखे रहते रखता है उस दिन भी मंगल है , जिस दिन चोट लगती है उस दिन भी मंगल है, जिस दिन कोई मरता है उस दिन भी मंगल है, जिस दिन कोई बिछड़ता है उस दिन भी मंगल है , जिस दिन हमारे मन के खिलाफ होता है उस दिन भी मंगल है ।

drishtant kaushal,
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दृष्टांत महासागर drishtant mahasagar

जिन्होंने दयार्द्र होकर वासुदेव नामक पुरुष के गलित कुष्ठ को नष्ट करके उसे सुंदर रूप प्रदान किया और भगवत भक्ति देकर संतुष्ट किया, ऐसे धन्य जीवन श्री चैतन्य को हम नमस्कार करते हैं । श्री चैतन्य आंध्र देश के एक गांव में पधारे, वासुदेव उसी ग्राम में रहता था सारे अंगों में गलित कुष्ठ है, घाव हो रहे हैं और उन में कीड़े पड़ गए हैं । वासुदेव भगवान का भक्त है और मानता है कि यह कुष्ठ रोग भी भगवान का दिया हुआ है , इससे उसके मन में कोई दुख नहीं है ।

उसने सुना एक रूप लावण्य युक्त तरुण विरक्त सन्यासी पधारे हैं और वह कूर्मदेव ब्राह्मण के घर ठहरे हैं , उनके दर्शन मात्र से हृदय में पवित्र भावों का संचार हो जाता है और जीभ अपने आप हरी हरी पुकार उठती है । वासुदेव से रहा नहीं गया वह कुर्म देव ब्राम्हण के घर दौड़ा गया , उसे पता लगा कि श्री चैतन्य आगे की ओर चल दिए हैं ।वह जोर जोर से रोने लगा और भगवान से कातर प्रार्थना करने लगा ।  भगवान की प्रेरणा हुई, चैतन्यदेव थोड़ी ही दूर से लौट पड़े और कूर्मदेव के घर आकर वासुदेव को जबरदस्ती बड़े प्रेम से उन्होंने हृदय से लगा लिया ।

वासुदेव पीछे की ओर हटकर बोला भगवन क्या कर रहे हैं, अरे मेरा शरीर घावों से भरा है, मवाद बह रहा है, कीड़े किलबिला रहे हैं, आप मेरा स्पर्ष मत कीजिए । आप का सोने सा शरीर मवाद से अपवित्र हो जाएगा, मैं बड़ा पापी हूं । मुझे आप छूइये नहीं, परंतु प्रभु क्यों सुनने लगे उसके शरीर से बड़े जोरों से चिपट गए और गदगद कण्ठ से बोले– ब्राम्हण देवता तुम जैसे भक्तों का स्पर्श करके मै स्वयं अपने को पवित्र करना चाहता हूं ।  प्रभु के अंगो का आलिंगन पाते ही वासुदेव के तन मन का सारा कुष्ठ सदा के लिए चला गया , उसका शरीर निरोग होकर, सुंदर स्वर्ण के समान चमक उठा । धन्य दयामय प्रभु !

drishtant in hindi,
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एक व्यक्ति ने अपने मित्र से कहा हमें नौकरी दे दो दूसरे व्यक्ति ने कहा हमें तो नौकर की ही जरूरत है उसी की तलाश है तुम ही मिल गए हो तो ठीक है । व्यक्ति ने कहा काम क्या करना पड़ेगा उस मित्र ने कहा और तो हम सब कर लेते हैं, सोच विचार में थोड़ा कच्चे हैं, हम विचार ही नहीं कर पाते तुम विचार करके बताया करो हम काम किया करेंगे । व्यक्ति ने कहा ठीक है कितने रुपए महीने में दोगे उसने कहा पांच हज़ार रुपये उस व्यक्ति ने कहा ठीक है , पर उस उसने नौकरी देने वाले मित्र से पूछा तुम क्या करते हो, उसने बोला हम खुद नौकरी करते हैं । पूछा तुम्हें कितना मिलता है , कहा हमें ढाई हजार मिलता है । तब वह व्यक्ति अपने मित्र से बोला जब तुम्हें ही ढाई हजार मिलते हैं तो हमें तुम पांच हजार कहां से दोगे बताओ, उसने कहा तुम सोचो इसीलिए तो तुम्हें रखा है, अब विचार करो ।

drishtant dena in hindi,
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दो आदमियों में झगड़ा हुआ एक ने कहा ऐसा तमाचा मारेंगे कि तुम्हारी बत्तीसो दांत नीचे गिर जाएंगे, तो दूसरा बोला कि हम ऐसा तमाचा मारेंगे कि चौंसठो दांत नीचे गिर जाएंगे । बगल में खड़े एक तीसरे आदमी ने कहा चौंसठ दांत होते भी नहीं है तो कैसे चौंसठ दांत नीचे गिरेंगे, तो उस आदमी ने कहा हमें पता था कि हम दोनों के बीच में तुम तीसरे जरूर बोलोगे तो बत्तीस दांत इसके और बत्तीस दांत तुम्हारे चौंसठ दांत नीचे गिरेंगे एक ही हाथ में । तो अभिमानी आदमी कभी अपनी गलती नहीं मानता ।

दृष्टांत महासागर drishtant mahasagar

एक था भिखारी ! रेल सफ़र में भीख़ माँगने के दौरान एक सूट बूट पहने सेठ जी उसे दिखे। उसने सोचा कि यह व्यक्ति बहुत अमीर लगता है, इससे भीख़ माँगने पर यह मुझे जरूर अच्छे पैसे देगा। वह उस सेठ से भीख़ माँगने लगा। भिख़ारी को देखकर उस सेठ ने कहा, “तुम हमेशा मांगते ही हो, क्या कभी किसी को कुछ देते भी हो?” भिख़ारी बोला, “साहब मैं तो भिख़ारी हूँ, हमेशा लोगों से मांगता ही रहता हूँ, मेरी इतनी औकात कहाँ कि किसी को कुछ दे सकूँ?”

सेठ:- जब किसी को कुछ दे नहीं सकते तो तुम्हें मांगने का भी कोई हक़ नहीं है। मैं एक व्यापारी हूँ और लेन-देन में ही विश्वास करता हूँ, अगर तुम्हारे पास मुझे कुछ देने को हो तभी मैं तुम्हे बदले में कुछ दे सकता हूँ। तभी वह स्टेशन आ गया जहाँ पर उस सेठ को उतरना था, वह ट्रेन से उतरा और चला गया।

इधर भिख़ारी सेठ की कही गई बात के बारे में सोचने लगा। सेठ के द्वारा कही गयीं बात उस भिख़ारी के दिल में उतर गई। वह सोचने लगा कि शायद मुझे भीख में अधिक पैसा इसीलिए नहीं मिलता क्योकि मैं उसके बदले में किसी को कुछ दे नहीं पाता हूँ। लेकिन मैं तो भिखारी हूँ, किसी को कुछ देने लायक भी नहीं हूँ।लेकिन कब तक मैं लोगों को बिना कुछ दिए केवल मांगता ही रहूँगा।

बहुत सोचने के बाद भिख़ारी ने निर्णय किया कि जो भी व्यक्ति उसे भीख देगा तो उसके बदले मे वह भी उस व्यक्ति को कुछ जरूर देगा। लेकिन अब उसके दिमाग में यह प्रश्न चल रहा था कि वह खुद भिख़ारी है तो भीख के बदले में वह दूसरों को क्या दे सकता है?

इस बात को सोचते हुए दिनभर गुजरा लेकिन उसे अपने प्रश्न का कोई उत्तर नहीं मिला। दुसरे दिन जब वह स्टेशन के पास बैठा हुआ था तभी उसकी नजर कुछ फूलों पर पड़ी जो स्टेशन के आस-पास के पौधों पर खिल रहे थे, उसने सोचा, क्यों न मैं लोगों को भीख़ के बदले कुछ फूल दे दिया करूँ। उसको अपना यह विचार अच्छा लगा और उसने वहां से कुछ फूल तोड़ लिए।

वह ट्रेन में भीख मांगने पहुंचा। जब भी कोई उसे भीख देता तो उसके बदले में वह भीख देने वाले को कुछ फूल दे देता। उन फूलों को लोग खुश होकर अपने पास रख लेते थे। अब भिख़ारी रोज फूल तोड़ता और भीख के बदले में उन फूलों को लोगों में बांट देता था। कुछ ही दिनों में उसने महसूस किया कि अब उसे बहुत अधिक लोग भीख देने लगे हैं। वह स्टेशन के पास के सभी फूलों को तोड़ लाता था। जब तक उसके पास फूल रहते थे तब तक उसे बहुत से लोग भीख देते थे। लेकिन जब फूल बांटते बांटते ख़त्म हो जाते तो उसे भीख भी नहीं मिलती थी,अब रोज ऐसा ही चलता रहा।

एक दिन जब वह भीख मांग रहा था तो उसने देखा कि वही सेठ ट्रेन में बैठे है जिसकी वजह से उसे भीख के बदले फूल देने की प्रेरणा मिली थी। वह तुरंत उस व्यक्ति के पास पहुंच गया और भीख मांगते हुए बोला, आज मेरे पास आपको देने के लिए कुछ फूल हैं, आप मुझे भीख दीजिये बदले में मैं आपको कुछ फूल दूंगा। सेठ ने उसे भीख के रूप में कुछ पैसे दे दिए और भिख़ारी ने कुछ फूल उसे दे दिए। उस सेठ को यह बात बहुत पसंद आयी।

सेठ:- वाह क्या बात है..? आज तुम भी मेरी तरह एक व्यापारी बन गए हो, इतना कहकर फूल लेकर वह सेठ स्टेशन पर उतर गया। लेकिन उस सेठ द्वारा कही गई बात एक बार फिर से उस भिख़ारी के दिल में उतर गई। वह बार-बार उस सेठ के द्वारा कही गई बात के बारे में सोचने लगा और बहुत खुश होने लगा। उसकी आँखे अब चमकने लगीं, उसे लगने लगा कि अब उसके हाथ सफलता की वह चाबी लग गई है जिसके द्वारा वह अपने जीवन को बदल सकता है।

वह तुरंत ट्रेन से नीचे उतरा और उत्साहित होकर बहुत तेज आवाज में ऊपर आसमान की ओर देखकर बोला, “मैं भिखारी नहीं हूँ, मैं तो एक व्यापारी हूँ.. मैं भी उस सेठ जैसा बन सकता हूँ.. मैं भी अमीर बन सकता हूँ! लोगों ने उसे देखा तो सोचा कि शायद यह भिख़ारी पागल हो गया है, अगले दिन से वह भिख़ारी उस स्टेशन पर फिर कभी नहीं दिखा। एक वर्ष बाद इसी स्टेशन पर दो व्यक्ति सूट बूट पहने हुए यात्रा कर रहे थे। दोनों ने एक दूसरे को देखा तो उनमे से एक ने दूसरे को हाथ जोड़कर प्रणाम किया और कहा, “क्या आपने मुझे पहचाना?”

सेठ:- “नहीं तो ! शायद हम लोग पहली बार मिल रहे हैं। भिखारी:- सेठ जी.. आप याद कीजिए, हम पहली बार नहीं बल्कि तीसरी बार मिल रहे हैं। सेठ:- मुझे याद नहीं आ रहा, वैसे हम पहले दो बार कब मिले थे?

अब पहला व्यक्ति मुस्कुराया और बोला:

हम पहले भी दो बार इसी ट्रेन में मिले थे, मैं वही भिख़ारी हूँ जिसको आपने पहली मुलाकात में बताया कि मुझे जीवन में क्या करना चाहिए और दूसरी मुलाकात में बताया कि मैं वास्तव में कौन हूँ। नतीजा यह निकला कि आज मैं फूलों का एक बहुत बड़ा व्यापारी हूँ और इसी व्यापार के काम से दूसरे शहर जा रहा हूँ।

आपने मुझे पहली मुलाकात में प्रकृति का नियम बताया था… जिसके अनुसार हमें तभी कुछ मिलता है, जब हम कुछ देते हैं। लेन देन का यह नियम वास्तव में काम करता है, मैंने यह बहुत अच्छी तरह महसूस किया है, लेकिन मैं खुद को हमेशा भिख़ारी ही समझता रहा, इससे ऊपर उठकर मैंने कभी सोचा ही नहीं था और जब आपसे मेरी दूसरी मुलाकात हुई तब आपने मुझे बताया कि मैं एक व्यापारी बन चुका हूँ। अब मैं समझ चुका था कि मैं वास्तव में एक भिखारी नहीं बल्कि व्यापारी बन चुका हूँ।

भारतीय मनीषियों ने संभवतः इसीलिए स्वयं को जानने पर सबसे अधिक जोर दिया और फिर कहा – सोऽहं शिवोहम !!

समझ की ही तो बात है… भिखारी ने स्वयं को जब तक भिखारी समझा, वह भिखारी रहा । उसने स्वयं को व्यापारी मान लिया, व्यापारी बन गया ।

जिस दिन हम समझ लेंगे कि मैं कौन हूँ…अर्थात मैं भगवान का अंश हूँ । फिर जानने समझने को रह ही क्या जाएगा ?

दृष्टांत महासागर pdf,
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दृष्टांत महासागर drishtant mahasagar

इस विषय में गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं~

आगें कह मृदु बचन बनाई। पाछें अनहित मन कुटिलाई॥

जाकर ‍चित अहि गति सम भाई। अस कुमित्र परिहरेहिं भलाई॥

जो सामने तो बना-बनाकर कोमल वचन कहता है और पीठ-पीछे बुराई करता है तथा मन में कुटिलता रखता है- हे भाई! (इस तरह) जिसका मन साँप की चाल के समान टेढ़ा है, ऐसे कुमित्र को तो त्यागने में ही भलाई है।

एक बार उल्लू और बाज में दोस्ती हो जाती है। दोनों साथ बैठकर खूब बातें करते हैं। बाज ने उल्लू से कहा कि अब जब हम दोस्त बन ही गए हैं, तो मैं तुम्हारे बच्चों पर कभी हमला नहीं करूंगा और न ही उन्हें मारकर खाऊंगा। लेकिन मेरी समस्या यह है कि मैं उन्हें पहचानूंगा कैसे कि ये तुम्हारे ही बच्चे हैं? उल्लू ने कहा कि तुम्हारा बहुत-बहुत शुक्रिया दोस्त। मेरे बच्चों को पहचानना कौन-सा मुश्किल है भला। वो बेहद खूबसूरत है, उनके सुनहरे पंख हैं और उनकी आवाज़ एकदम मीठी-मधुर हैं।

बाज ने कहा ठीक है दोस्त, मैं अब चला अपने लिए भोजन ढूंढ़ने। बाज उडते हुए एक पेड़ के पास गया। वहां उसने एक घोसले में चार बच्चे देखे। उनका रंग काला था, वो जोर-जोर से कर्कश आवाज में चिल्ला रहे थे। बाज ने सोचा न तो इनका रंग सुनहरा, न पंख, न ही आवाज़ मीठी-मधुर, तो ये मेरे दोस्त उल्लू के बच्चे तो हो ही नहीं सकते। मैं इन्हें खा लेता हूँ और बाज ने उन बच्चों को खा लिया।
इतने में ही उल्लू उड़ते हुए वहाँ पहुंचा और उसने कहा कि ये तुने क्या किया?

ये तो मेरे बच्चे थे। बाज हैरान था कि उल्लू ने उससे झूठ बोलकर उसकी दोस्ती को भी धोखा दिया। वो वहाँ से चला गया। उल्लू मातम मना रहा था कि तभी एक कौआ आया और उसने कहा कि अब रोने से क्या फायदा, तुमने बाज से झूठ बोला, अपनी असली पहचान छिपाई और इसी की तुम्हें सज़ा मिली। शिक्षा~ कभी भी अपनी असली पहचान छिपाने की भूल नहीं करनी चाहिए। न ही दोस्तों को धोखा देने की कोशिश करनी चाहिए।

दृष्टांत महासागर drishtant mahasagar

एक बार की बात है, संत तुकाराम अपने आश्रम में बैठे हुए थे। तभी उनका एक शिष्य, जो स्वभाव से थोडा क्रोधी था, उनके समक्ष आया और बोला~ गुरुजी! आप कैसे अपना व्यवहार इतना मधुर बनाये रहते है, ना आप किसी पे क्रोध करते है और ना ही किसी को कुछ भला-बुरा कहते है? कृपया अपने इस अच्छे व्यवहार का रहस्य बताइए। संत बोले~ मुझे अपने रहस्य के बारे में तो नहीं पता, पर मैं तुम्हारा रहस्य जानता हूँ। “मेरा रहस्य! वह क्या है गुरुजी?” शिष्य ने आश्चर्य से पूछा। “तुम अगले एक हफ्ते में मरने वाले हो!” संत तुकाराम दुखी होते हुए बोले। कोई और कहता तो शिष्य ये बात मजाक में टाल सकता था, पर स्वयं संत तुकाराम के मुख से निकली बात को कोई कैसे काट सकता था? शिष्य उदास हो गया और गुरुजी का आशीर्वाद ले वहाँ से चला गया।

उस समय से शिष्य का स्वभाव बिलकुल बदल सा गया। वह हर किसी से प्रेम से मिलता और कभी किसी पे क्रोध न करता, अपना ज्यादातर समय ध्यान और पूजा में लगाता। वह उनके पास भी जाता जिससे उसने कभी गलत व्यवहार किया था और उनसे माफ़ी मांगता। देखते-देखते संत की भविष्यवाणी को एक हफ्ते पूरे होने को आये। शिष्य ने सोचा चलो एक आखिरी बार गुरुजी के दर्शन कर आशीर्वाद ले लेते है। वह उनके समक्ष पहुंचा और बोला~ गुरुजी, मेरा समय पूरा होने वाला है, कृपया मुझे आशीर्वाद दीजिये। “मेरा आशीर्वाद हमेशा तुम्हारे साथ है पुत्र! अच्छा, ये बताओ कि पिछले सात दिन कैसे बीते? क्या तुम पहले की तरह ही लोगों से नाराज हुए, उन्हें अपशब्द कहे?”संत तुकाराम ने प्रश्न किया।  “नहीं-नहीं, बिलकुल नहीं। मेरे पास जीने के लिए सिर्फ सात दिन थे, मैं इसे बेकार की बातों में कैसे गँवा सकता था? मैं तो सबसे प्रेम से मिला, और जिन लोगों का कभी दिल दुखाया था उनसे क्षमा भी मांगी” शिष्य तत्परता से बोला।

संत तुकाराम मुस्कुराए और बोले, “बस यही तो मेरे अच्छे व्यवहार का रहस्य है।” शिष्य समझ गया कि संत तुकाराम ने उसे जीवन का यह पाठ पढ़ाने के लिए मृत्यु का भय दिखाया था। वास्तव में हमारे पास भी सात दिन ही बचें है। “रवि, सोम, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, आठवां दिन तो बना ही नहीं है।”
अतः संसार के व्यर्थ के वाद-विवाद छोड़कर समय रहते ही भगवान के भजन सुमिरन में लग जाना चाहिए।

दृष्टांत महासागर drishtant mahasagar

निर्मल मन जन सो मोहि पावा। मोहि कपट छल छिद्र न भावा।।

प्रभु श्री राम जी कहते हैं:~ जो मनुष्य निर्मल मन का होता है, वही मुझे पाता है। मुझे कपट और छल~छिद्र नहीं सुहाते।

एक सदना नाम का कसाई था,मांस बेचता था पर भगवत भजन में बड़ी निष्ठा थी एक दिन एक नदी के किनारे से जा रहा था रास्ते में एक पत्थर पड़ा मिल गया.उसे अच्छा लगा उसने सोचा बड़ा अच्छा पत्थर है क्यों ना में इसे मांस तौलने के लिए उपयोग करू. उसे उठाकर ले आया.और मांस तौलने में प्रयोग करने लगा. जब एक किलो तोलता तो भी सही तुल जाता, जब दो किलो तोलता तब भी सही तुल जाता, इस प्रकार चाहे जितना भी तोलता हर भार एक दम सही तुल जाता, अब तो एक ही पत्थर से सभी माप करता और अपने काम को करता जाता और भगवन नाम लेता जाता. एक दिन की बात है उसी दूकान के सामने से एक ब्राह्मण निकले ब्राह्मण बड़े ज्ञानी विद्वान थे उनकी नजर जब उस पत्थर पर पड़ी तो वे तुरंत उस सदना के पास आये और गुस्से में बोले ये तुम क्या कर रहे हो क्या तुम जानते नहीं जिसे पत्थर समझकर तुम तोलने में प्रयोग कर रहे हो वे शालिग्राम भगवान है ।

इसे मुझे दो जब सदना ने यह सुना तो उसे बड़ा दुःख हुआ और वह बोला हे ब्राह्मण देव मुझे पता नहीं था कि ये भगवान है मुझे क्षमा कर दीजिये.और शालिग्राम भगवान को उसने ब्राह्मण को दे दिया । ब्राह्मण शालिग्राम शिला को लेकर अपने घर आ गए और गंगा जल से उन्हें नहलाकर, मखमल के बिस्तर पर, सिंहासन पर बैठा दिया, और धूप, दीप,चन्दन से पूजा की । जब रात हुई और वह ब्राह्मण सोया तो सपने में भगवान आये और बोले ब्राह्मण मुझे तुम जहाँ से लाए हो वही छोड आओं मुझे यहाँ अच्छा नहीं लग रहा. इस पर ब्राह्मण बोला भगवान ! वो कसाई तो आपको तुला में रखता था जहाँ दूसरी और मास तोलता था उस अपवित्र जगह में आप थे. भगवान बोले – ब्रहमण आप नहीं जानते जब सदना मुझे तराजू में तोलता था तो मानो हर पल मुझे अपने हाथो से झूला झूल रहा हो जब वह अपना काम करता था तो हर पल मेरे नाम का उच्चारण करता था ।

हर पल मेरा भजन करता था जो आनन्द मुझे वहाँ मिलता था वो आनंद यहाँ नहीं.इसलिए आप मुझे वही छोड आये ।  तब ब्राम्हण तुरंत उस सदना कसाई के पास गया और बोला मुझे माफ कर दीजिये। वास्तव में तो आप ही सच्ची भक्ति करते हैं। ये अपने भगवान को संभालिए। भाव~ भगवान बाहरी आडंबर से नहीं भक्त के भाव से रिझते है। उन्हें तो बस भक्त का भाव ही भाता है।

दृष्टांत महासागर drishtant mahasagar

10-कहानी- संग किसका करना चाहिए

रहिमन उजली प्रकृति को, नहीं नीच को संग।

करिया वासन कर गहे, कालिख लागत अंग।।

कविवर रहीम कहते हैं- कि जिनकी प्रवृत्ति उजली और पवित्र है अगर उनकी संगत नीच से न हो तो अच्छा ही है। नीच और दुष्ट लोगों की संगत से कोई न कोई कलंक लगता ही है।  पद्मपुराण में एक कथा है~
एक बार एक शिकारी शिकार करने गया, शिकार नहीं मिला, थकान हुई और एक वृक्ष के नीचे आकर सो गया। पवन का वेग अधिक था, तो वृक्ष की छाया डालियों के यहाँ-वहाँ हिलने के कारण कभी कम-ज्यादा हो रही थी। वहीं से एक अति सुन्दर हंस उडकर जा रहा था, उस हंस ने देखा कि वह व्यक्ति बेचारा परेशान हो रहा है। धूप उसके मुँह पर आ रही है तो ठीक से सो नहीं पा रहा है, तो वह हंस पेड़ की डाली पर अपने पंख खोल कर बैठ गया ताकि उसकी छाँव में वह शिकारी आराम से सोयें।

जब वह सो रहा था तभी एक कौआ आकर उसी डाली पर बैठा। इधर-उधर देखा और बिना कुछ सोचे-समझे शिकारी के ऊपर अपना मल विसर्जन कर वहाँ से उड गया। तभी शिकारी उठ गया और गुस्से से यहाँ-वहाँ देखने लगा और उसकी नज़र हंस पर पड़ी और उसने तुरंत धनुष बाण निकाला और उस हंस को मार दिया। हंस नीचे गिरा और मरते-मरते हंस ने कहा:- मैं तो आपकी सेवा कर रहा था, मैं तो आपको छाँव दे रहा था, आपने मुझे ही मार दिया? इसमें मेरा क्या दोष?

उस समय उस पद्मपुराण के शिकारी ने कहा:- यद्यपि आपका जन्म उच्च परिवार में हुआ, आपकी सोच आपके तन की तरह ही सुन्दर है, आपके संस्कार शुद्ध है, यहाँ तक कि आप अच्छे इरादे से मेरे लिए पेड़ की डाली पर बैठकर मेरी सेवा कर रहे थे, लेकिन आपसे एक गलती हो गयी। जब आपके पास कौआ आकर बैठा तो आपको उसी समय उड जाना चाहिए था। उस दुष्ट कौए के साथ एक घड़ी की संगत ने ही आपको मृत्यु के द्वार पर पहुंचाया है।

*शिक्षा~* संसार में संगति का सदैव ध्यान रखना चाहिए। जो मन, कार्य और बुद्धि से परमहंस है उन्हें कौओं की सभा से दूरी बनायें रखना चाहिए।

अतः सदैव साधु-संत एवं सज्जन व्यक्ति का ही संग करना चाहिए। संतों के क्षण मात्र के संग से अनेकों जन्म जन्मों के पाप क्षण भर में भस्म हो जाते है।
गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि~

एक घड़ी आधी घड़ी, आधी में पुनि आध। तुलसी संगत साधु की, हरे कोटि अपराध।।

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11- चोर से एक महान सन्यासी बनने की कहानी

अच्छी बात की नकल से कभी-कभी अपूर्व फल की प्राप्ति होती है ¡ एक चोर आधी रात को किसी राजा के महल में घुसा और राजा को रानी से यह कहते सुना कि, मैं अपनी कन्या का विवाह उस साधु से करूंगा जो गंगा किनारे रहता है । चोर ने सोचा यह अच्छा अवसर है कल मैं भगवा वस्त्र पहनकर साधुओं के बीच जा बैठूंगा संभव है राज कन्या का विवाह मेरे ही साथ हो जाए । दूसरे दिन उसने ऐसा ही किया राजा के कर्मचारी जब साधुओं से राजकन्या के साथ विवाह कर लेने की प्रार्थना करने लगे , लेकिन किसी ने स्वीकार नहीं किया ।

उस चोर सन्यासी के पास गए और वही प्रार्थना उन्होंने उससे भी की तब उसने कोई उत्तर नहीं दिया कर्मचारी लौटकर राजा के पास गए और कहा कि महाराज और तो कोई साधु राजकन्या के साथ विवाह करना स्वीकार नहीं करता ।  एक यूवा संन्यासी अवश्य है, संभव है विवाह करने पर तैयार हो जाए । राजा उसके पास गया और राजकन्या के साथ विवाह करने के लिए अनुरोध करने लगा । राजा के स्वयं आने से चोर का हृदय एकदम बदल गया उसने सोचा अभी तो केवल सन्यासियों के कपड़े पहनने का यह परिणाम हुआ है, कितना बड़ा राजा मुझसे मिलने के लिए स्वयं आया है ।

यदि मैं वास्तव में सच्चा सन्यासी बन जाऊं तो ना मालूम आगे अभी और कैसे अच्छे अच्छे परिणाम देखने में आए । इन विचारों का उस पर ऐसा अच्छा प्रभाव पड़ा कि उसने विवाह करना एकदम अस्वीकार कर दिया और उस दिन से वह एक अच्छा साधु बनने के प्रयत्न में लगा । उसने विवाह जन्म भर ना किया और अपनी साधनाओं से एक  पहुंचा हुआ सन्यासी हुआ । अच्छी बात की नकल से भी कभी-कभी अनपेक्षित और अपूर्व फल की प्राप्ति होती है ।

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12- छड़िक वैराग्य- दो भक्तों की तपस्या

एक गांव में दो व्यक्ति थे वह अच्छे मित्र थे जो भी करते एक साथ ही करते थे दोनों घर गृहस्ती वाले थे, एक बार वे दोनों घर गृहस्थी से परेशान हो गए और दोनों घर से वन जाकर भगवान का भजन करने का विचार बनाया और दोनों प्राणी अपना जरूरी सामान लेकर वन की ओर निकल पड़े । वन में जाकर एक व्यक्ति बरगद के नीचे आसन लगाया दूसरा पीपल के वृक्ष के नीचे आसन लगाया, एक दिन उसी वन से देवर्षि नारद गुजरे दोनों ने निवेदन किया कि हे देवर्षि आप भगवान के पार्षद हैं आप हमारा छोटा सा संदेश प्रभु के पास पहुंचा दीजिए, उनसे कहिएगा कि भगवान दो भक्त अपना घर बार छोड़कर वन में आप का भजन कर रहे हैं उन्हें आप दर्शन कब दोगे ।

देवर्षि भगवान से बताया तो भगवान ने कहा कि देवर्षि उनसे जाकर कह देना कि जितने पीपल में पत्ते हैं उतने वर्ष बाद और बरगद वाले से कह देना बरगद में जितने उसके फल हैं उतने वर्ष बाद में उन्हें दर्शन दूंगा, देवर्षि नारद आए और सबसे पहले बरगद के नीचे बैठे भक्त को बताया कि भगवान ने कहा है कि मैं दर्शन दूंगा पर इस बरगद में जितने फल है उतने बरसो बाद । तो उस व्यक्ति के होश उड़ गए वह अपना बोरिया बिस्तर बांधा और देवर्षि नारदजी से कहने लगा महाराज इससे बढ़िया तो घर जा रहा हूं वहां मेरे पुत्र पत्नी मेरा इंतजार कर रहे होंगे ,उसका क्षणिक बैराग था तो वह भाग गया ।

अब देवर्षि दूसरे व्यक्ति के पास आए और कहने लगे हां भाई भगवान ने संदेश भेजा है कि मैं दर्शन तो दूंगा पर पीपल में जितने पत्ते हैं इतने वर्षों बाद दर्शन दूंगा, उस व्यक्ति ने जैसे ही यह सुना कि भगवान मुझे दर्शन देने के लिए बोले हैं भाव विभोर होकर नाचने लगा ।

दें कहिन ता द्याबय करिहैं ।राम खबरिया ल्याबय करिहैं ।।

और मगन हो गया नाचने में उसी समय भगवान वहीं प्रकट हो गए और भक्त के साथ नाचने लगे, भक्त ने परमात्मा का साक्षात्कार करके कृतकृत्य हो गया । देवर्षि नारद ने कहा प्रभु आप भी बड़े झूठे हैं अभी-अभी आपने कहा कि जितने पीपल के वृक्ष में पत्ते हैं उतने वर्ष बाद दर्शन दूंगा और आप तो पल भर में प्रकट हो गए, परमात्मा ने कहा देवर्षि मुझे प्राप्त करने का एकमात्र साधन है श्रद्धा और विश्वास अगर भक्त की सच्ची श्रद्धा और विश्वास है तो मुझे प्राप्त करना एकदम सरल है मै छिन मे प्रकट हो जाता हूँ ।

इस कहानी से हमें यह शिक्षा प्राप्त होती है कि हम कोई भी कार्य करें उस पर पूर्ण विश्वास रखें और श्रद्धा के साथ उस कार्य को करें वह जरूर पूर्ण होगा जरूर सफल होगा ।

दृष्टांत महासागर drishtant mahasagar

13- हर काम आत्मसमर्पण से करना चाहिए ।

एक राजा था उसका मंत्री बहुत बुद्धिमान और बलवान था वह अपने तीक्ष्ण बुद्धि और बल के प्रभाव से अपने आसपास के समस्त छोटे बड़े राज्यों को जीत लिया और अपने साम्राज्य का बहुत विस्तार कर लिया था । अब राजा भी उस अपने मंत्री से बहुत प्रसन्न रहता उसकी बड़ी प्रशंसा करता वह उसकी, एक दिन राज्य दरबार लगा हुआ था और वह मंत्री अपने राजा को बधाई दिया कि महाराज हम अपने आसपास के समस्त राज्यों को जीत लिए बस एक छोटा सा राज्य बचा है जीतने को क्योंकि वह राज्य नदी के किनारे उस पार है ।

राजा ने मंत्री को आदेश दिया जाओ उस छोटे से राज्य को अभी जीतकर आओ हम तुम्हें उस युद्ध के लिए दस हजार सैनिक देते हैं , अब मंत्री दस हजार सैनिकों के साथ नाव में बैठकर उस राज्य में युद्ध करने पहुंचा । उस छोटे से राज्य के सैनिकों में इतनी एकता थी-इतनी एकता थी कि वह मंत्री को दस हजार सैनिकों के साथ हारा दिए, मंत्री लोग पीठ दिखाकर भागे और अपने अपनी नाव में बैठकर वापिस राज्य आ गए । राजा को पता चला तो वह क्रोधित होकर फांसी की सजा सुना दिया अपने मंत्री को कहा कि मंत्री तुमने बड़े बड़े राज्यों को जीतकर हमारा यस बढ़ाया है लेकिन तू एक छोटे से राज्य को इतने सैनिकों के बाद भी नहीं जीत पाए पीठ दिखा कर भाग आए इससे हमारी बड़ी बदनामी हुई है ।

हम तुमको फांसी की सजा सुनाते हैं, जब मंत्री से उसकी आखिरी इच्छा पूछी गई तब मंत्री ने एक बार और उस राज्य में युद्ध करने की इच्छा प्रकट की, राजा ने सुना तो कहा मंत्री तुम कह रहे हो तो ठीक है हम तुम्हारी आखिरी इच्छा अवश्य पूरी करेंगे परंतु इस बार मात्र आपको पांच हजार सैनिक देंगे हम । अब मंत्री पांच हजार सैनिकों को साथ लिया नाव से उस पार गया और सभी नाव में आग लगवा दिया सैनिकों ने कहा मंत्री साहब यह क्या किया आपने , मंत्री ने कहा दोनों तरफ मौत है अगर हार गए तो यहां मारे जाएंगे अगर लौट आए तो वहां फांसी में चढ़ के मरना पड़ेगा, इसलिए पूरे मन से युद्ध करो, युद्ध में विजय प्राप्त करना है इस बार । मंत्री और उनके पूरे सैनिक आत्मसमर्पण से युद्ध किए और मंत्री मात्र पांच हजार सैनिकों मे हि राज्य को जीत लिया । तो मनुष्यों को भी आत्मसमर्पण के साथ हर काम करना चाहिए ।

इस कहानी से हमें यही शिक्षा मिलती है हमे हर कार्य पूरे समर्पण के साथ करना चाहिए,तो वो जरूर पूरा होता है ।

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14- सफलता की कहानी

जापान में पुरानी कथा है। एक छोटे से राज्य पर एक बड़े राज्य ने आक्रमण कर दिया। उस राज्य के सेनापति ने राजा से कहा कि आक्रमणकारी सेना के पास बहुत संसाधन है हमारे पास सेनाएं कम है संसाधन कम है हम जल्दी ही हार जायेंगे बेकार में अपने सैनिक कटवाने का कोई मतलब नहीं। इस युद्ध में हम निश्चित हार जायेंगे और इतना कहकर सेनापति ने अपनी तलवार नीचे रख दिया। अब राजा बहुत घबरा गया अब क्या किया जाए, फिर वह अपने राज्य के एक बूढे फकीर के पास गया और सारी बातें बताई। फकीर ने कहा उस सेनापति को फौरन हिरासत में ले लो उसे जेल भेज दो। नहीं तो हार निश्चित है।

यदि सेनापति ऐसा सोचेगा तो सेना क्या करेंगी। इंसान जैसा सोचता है  उसी प्रकार हो जाता है।  फिर राजा ने कहा कि युद्ध कौन करेगा। फकीर ने कहा मैं, वह फकीर बूढ़ा था, उसने कभी कोई युद्ध नहीं लड़ा था और तो और वह कभी घोड़े पर भी कभी चढ़ा था। उसके हाथ में सेना की बागडोर कैसे दे दे। लेकिन कोई दूसरा चारा न था। वह बूढ़ा फकीर घोड़े पर सवार होकर सेना के आगे आगे चला। रास्ते में एक पहाड़ी पर एक मंदिर  था।

फकीर सेनापति वहां रुका और सेना से कहा कि पहले मंदिर के देवता से पूछ लेते हैं कि हम युद्ध में जीतेंगे कि हारेंगे। सेना हैरान होकर पूछने लगी कि देवता कैसे बतायेंगे और बतायेंगे भी तो हम उनकी भाषा कैसे समझेंगे। बूढ़ा फकीर बोला ठहरो मैंने आजीवन देवताओं से संवाद किया है मैं कोई न कोई हल निकाल लूंगा। फिर फकीर अकेले ही पहाड़ी पर चढा और कुछ देर बाद वापस लौट आया। फकीर ने सेना को संबोधित करते हुए कहा कि मंदिर के देवता ने मुझसे कहा है कि यदि रात में मंदिर से रौशनी निकलेगी तो समझ लेना कि दैविय शक्ति तुम्हारे साथ है और युद्ध में अवश्य तुम्हारी जीत हासिल होगी। सभी सैनिक साँस रोके रात होने की प्रतीक्षा करने लगे। रात हुई और उस अंधेरी रात में मंदिर से प्रकाश छन छन कर आने लगा । सभी सैनिक जयघोष करने लगे और वे युद्ध स्थल की ओर कूच कर गए ।21 दिन तक घनघोर युद्ध हुआ फिर सेना विजयी होकर लौटीं।
रास्ते में वह मंदिर पड़ता था। जब मंदिर पास आया तो सेनाएं उस बूढ़े फकीर से बोली कि चलकर उस देवता को धन्यवाद दिया जाए जिनके आशीर्वाद से यह असम्भव सा युद्ध हमने जीता है।

सेनापति बोला कोई जरूरत नहीं ।। सेना बोली बड़े कृतघ्न मालूम पड़ते हैं आप जिनके प्रताप से आशीर्वाद से हमने इस भयंकर युद्ध को जीता उस देवता को धन्यवाद भी देना आपको मुनासिब नही लगता। तब उस बूढ़े फकीर ने कहा , वो दीपक मैंने ही जलाया था जिसकी रौशनी दिन के उजाले में तो तुम्हें नहीं दिखाई दिया पर रात्रि के घने अंधेरे में तुम्हे दिखाई दिया। तुम जीते क्योंकि तुम्हे जीत का ख्याल निश्चित हो गया। विचार अंततः वस्तुओं में बदल जाती है।
विचार अंततः घटनाओं में बदल जाती है।

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15- बुराई छोड़ अच्छाई को धारण करना ही बुद्धिमानी है

सहस्रबाहु दसबदन आदि नृप बचे ना काल बली ते । बड़े-बड़े रावण सहस्त्रबाहु आदि राजा जो अपने आप को सबसे महान व बली मानते थे वह भी नहीं बचे काल से । हम सबको दो बातों को नहीं भूलना चाहिए–

दो चीज तो अटल सत्य है जो इस पृथ्वी पर आया है उसे तो जाना पड़ेगा चाहे वह रंक हो या राजा, सहस्त्रार्जुन का आपने नाम सुना होगा यह बड़ा पराक्रमी वीर था लेकिन इसने बुरायी को धारण किया जिसका परिणाम भी बुरा हुआ । रावण से भी बढ़कर प्रतापी था कार्तिकेय सहस्त्रबाहु अर्जुन रावण को उसने खेल-खेल में पकड़ लिया और खूटें में लाकर इस भांति बांध दिया जैसे कोई कुत्ते को बांध देता है । रावण को पकडकर उसके दसों सिरों के दीवट बनाकर उसने दीपक जला दिए थे,उसके पास हजार भुजाएं थी जिनमें पामच सौ धनुष एक साथ चढ़ाकर युद्ध कर सकता था ।भगवान दत्तात्रेय की कृपा प्राप्त हो गई थी, शारीरिक बल तो था ही योग के बल से अनेक सिद्धियां मिल गई जिसकी कहीं तुलना नहीं थी, सहस्त्रार्जुन का बल क्या काम आया ।

वहां युद्ध स्थल में भगवान परशुराम जी के तरफ से उसकी हजीर भुजाएं वृक्ष की टहनियों के समान बिखरी पड़ी रह गई , सदा गर्व से उन्मत्त रहने वाला मस्तक छिन्नभिन्न हो गया । सहस्त्रबाहु अर्जुन भी मृत्यु का ग्रास बना । जिसके दस मस्तक और बीस भुजाएं थी वह रावण अमर नहीं हुआ, जिसने रावण को भी बांध लेने वाला बल और हजार भुजाएं पाई वह सहस्त्रबाहु अर्जुन अमर नहीं हुआ उनको भी मरना पड़ा । तो एक सिर और दो हाथ का अत्यंत दुर्बल मनुष्य अरे भाई भूल मत कि तुझे भी मरना है, सबको मरना है केवल यही जीवन का सत्य है, इसे भूल मत और भगवान को स्मरण कर ।

मित्रों सहस्त्रबाहु की कहानी से हमें यही शिक्षा प्राप्त होती है कि हमें कभी भी बुराई नहीं अपनाना चाहिए और दो बातों को स्मरण रखना है- कि मौत एक ना एक दिन आनी है और जिसने हमें भेजा है वह भगवान पर श्रद्धा और विश्वास ।


16- भागीरथ और गंगा का धरती पर आगमन

सर्वत्र पावनी गंगा त्रिषु स्थानेषु दुर्लभा। 

गंगा द्वारे प्रयागे च गंगासागर संगमे।।

भारतीय जनमानस के लिए गंगा एक सामान्य नदी ही नदी, बल्कि यों कहें भारत की आत्मा है। गंगा भारतीय संस्कृति और सभ्यता की साक्षी रही है। भूगोल की एक सामान्य नदी, भारत की अस्मिता को समेटे हुए है।
महाभारत, रामायण पुराण ही नहीं अपितु विश्व सभ्यता के प्राचीनतम् ग्रन्थ वेद मे भी गंगा का उल्लेख गंगा की अपरिसीम महत्व को दर्शाता है। ऋगवेद के एक श्लोक मे यमुना सरस्वती, असिवनी, शुतुद्रि मरुतबृधा, सुषोमा, आर्जिकीया, शुतुद्रि आदि नदियों के साथ गंगा का उल्लेख गंगा का प्रचीनता का प्रमाण है :

इमं मे गंगे यमुने सरस्वती शुतुद्रि । स्तोमं सचता परुषत् ॥ 

आसिकन्या मरुत्बृधे वितस्तयार्जिकीये। धुनुह्या सुषोमया ॥ 

गंगा के मृत्युलोक मे अवतरण सम्बन्धि अनेक पौराणिक अख्यान पुराणों में मिलते जो परस्पर विरोधाभास लिए हुए की ब्रम्हबैर्वत पुराण के अनुसार गंगा, लक्ष्मी और सरस्वती तो विष्णु पत्निया है। आपसी कलह और बैमन्स्य के चलते ये तीनो मृत्युलोक  मे नदी के रूप में चली आयी जो मृत्युलोक वासियो के लिा वरदान साबित हुई। ये तीनो नदियाँ-गंगा, पद्मा और सरस्वती के सलिल से भारतभूमि धन-धान्य परिपूर्ण हुआ।

गंगा के उत्पत्ति के विषय मे एक और लोकप्रिय कहानी सुनने में आता है कि महर्षि नारद को अपने संगीतज्ञान पर बहुत अहंकार था। वे सोचते थे कि, उनके जैसा कोई संगीतज्ञ नहीं है। इस अहंकार के चलते वे उट-पटांग ढंग से संगीताभ्यास करते जिसके चलते राग-रागिनिया विकलांग होती गयी। इधर नारद का अपने अहंकार के चलते राग-रागिनियों की दशा का ख्याल ही न रहा। सम्पूर्ण संगीत शास्त्र विकृत हो चला। अन्त में राग-रागिनियो ने अपने दुःख का कारण नारद मुनि को बताया। महर्षि नारद अहंकार के कारण अपनी भूल को पकड़ नही पा रहे थे। यह ठीक हुआ कि यदि देवाधिदेव महादेव संगीताभ्यास करे तो राग-रागिनियां सामान्य हो सकेगी।

यह कथा यह दर्शता है कि व्यक्ति को सामान्य ज्ञान के मोह में अहंकारी नही होना चाहिए, बल्कि ज्ञान प्राप्ति के लिए सतत प्रयत्नशील रहना चाहिए। वैसे भी संगीत को नादब्रह्म कहा गया है। संगीत साधना हो या कुछ और सामान्य अहंकार के चलते देवर्षि नारद जैसा साधक का-भी पतन हुआ। अत: अहंकार से सदैव परहेज करना चाहिए। इधर महादेव देवसभा में राग-रागिनियों के कल्याणार्थ गा रहे है। पर महादेव के इस संगीत के रस-गांभीर्य को समझने की क्षमता भला किसमे है ? विष्णु कुछ हद तक हृदयंगम कर रहे थे। पुराणो में ऐसा वर्णन है, कि शंकर की संगीत लहरी से विष्णु का अंगुठा द्रवीभूत हो गया, जिससे सम्पूर्ण देवलोक प्लावित हो गया। ब्रह्मा ने इस द्रवीभूत विष्णु सत्ता को अति सावधानी के साथ, अपने कमण्डल मे भरकर रखा जिसे भगीरथ अपनी अकात तपस्या के बलपर सगर पुत्रो के कल्याणार्थ लाये। विष्णुपद से विगलित होने, के कारण गंगा का एक नाम विष्णुपदी भी है।

श्रीमद् भगवत के अनुसार अयोध्या में इक्ष्वाकुवंशीय राजा सगर राज्य किया करते थे। वे बड़े ही दयालु धर्मात्मा व प्रजारक्षक थे। सगर का शाब्दिक अर्थ है बिष के साथ जब हैहय तालजंध ने सगर के पिता वाहु को संग्राम मे परास्त किया तो वे राज्यच्युत हो अग्नि और्व ऋषि के आश्रम चले गये। उसी दौरान किसी शत्रु ने वाहु की भार्या को बिष खिला दिया। उस समय सगर मातगर्भ में थे। ऋषि और्व ने अपने प्रयास से वाहु-भार्या  को बचा लिए, और सगर का जन्म हुआ। गरल या बिष के साथ इनका जन्म हुआ, इस लिए ये स+गर सगर कहलाये।

सगर के पिता वाहु तो ऋषि अग्नि और्व के आश्रम में ही स्र्वगगत हुए। सगर बड़े होकर अपने बाहुवल और पराक्रम के बलपर, अपना खोया राज्य प्राप्त किया। सगर ने हैहयों को जीत कर अपने पिता वाहु की पराजय का बदला लिया। उसी समय ऋषि अग्निऔर्वजो हैहयों के परम्परागत शत्रु थे, सगर को भारी सहायता दी। सगर ने समुचे मध्यभारत को जीत कर अपना महासाम्राज्य स्थापित किया।

महाराजा सगर बाहुबली और पराक्रमी के साथ साथ धार्मिक प्रकृति के व्यक्ति थे ! वे ऋषि-महर्षियों का सदैव सम्मान किया करते थे। एक बार राजा सगर बशिष्ठ मुनि के सुझाव पर महासाम्राज्य स्थापित करने के बाद अश्वमेध यज्ञ का आयोजन किया। प्राचीन काल के सभी यज्ञो में अश्वमेध और राजसुय यज्ञ ही प्रधान थे। भारत के श्रेष्ठ पराक्रमशाली सम्राट अश्वमेध यज्ञ का आयोजन करते थे। इस यज्ञ मे ९९ यज्ञ सम्पन्न होने पर एक अति सुलक्षण घोड़ें पर जयपत्र बाँध कर छोड़ दिया जाता था। जयपत्र पर लिखा होता अश्व जिस स्थान व राज्य से होकर गुजरे वह राज्य यज्ञकर्ता राजा के अधीन माना जायेगा जो जो राजा या क्षेत्रप अधीनता स्वीकार नही करते वे अश्व को रोक कर युद्ध करते।

अश्व के साथ उसकी देखरेख के लिए सहस्त्रों सैनिक भी साथ चलते। एक वर्ष बाद जब अश्व वापस राज्य में आता तो शास्त्रानुसार युपवद्ध कर अश्व की बलि दी जाती। अश्व का मांस खण्ड यज्ञ में आहुति स्वरूप दी जाती। महाराज सगर यज्ञाश्व की सुरक्षा के लिए अपने साठ सहस्र सैनिको का नियोग किया था। प्रतापशाली सैनिक महासामारोह के साथ अश्व को लेकर भारत भ्रमण करते रहे। इधर सगर राजा के बल-पराक्रम तथा अश्वमेध यज्ञ सम्पूर्ण होते देख देवराज इन्द्र को शंका हुई, शंकालु इन्द्र यह सोचने लगे कि अश्वमेध यज्ञ सफल होने के बाद यज्ञकर्ता को स्वर्गलोक का-भी राजत्व प्राप्त हो जाता है। इन्द्र ने दिग्विजयी अश्व को अपने मायाजाल के बुते पर चराकर पाताल लोक में तपस्या रत महामुनि कपिल के आश्रम में छिपा दिया। ऐसा माना जाता है, कि पृथ्वी को धारण करने में शेषनाग के साथ महामुनि कपिल का भी विशेष योगदान है। इन्द्र ने जब अश्व को लाकर छुपाया उस समय मुनि एकान्त साधना में लीन थे। अत: वे अश्व के विषय में सर्वथा अनभिज्ञ ही रहे। ।

इधर एक वर्ष पुरा होने को हुआ। यज्ञाश्व के साथ साठ हजार पुत्रों का प्रत्यार्वतन न होते देख “चक्रवर्ती” सगर चिन्तित हो उठे। सगर की दो पत्नियाँ थी, एक का नाम वैदभी तथा दुसरी शैव्या। वैदभी के गर्भ से एक मात्रपुत्र असमञ्जस हुए। इनका जैसा नाम था वैसा ही गुण, ये बड़े प्रजापीड़क थे। धार्मिक, सहिष्णु और उदार सगर के लिए, असमञ्जस का व्यवहार कष्टकारक था। सगर ने उसे व्याग दिया। किन्तु असमञ्जस के औरस से प्रबल पराक्रमी अंशुमान का जन्म हुआ। जिन्होने अश्वमेध और राजसुय यज्ञ सम्पन्न कराये और राजर्षि की उपाधि प्राप्त की। शैव्या यासुमति के गर्भ से साठ हजार पुत्र उत्पन्न हुए जो सभी एक से बढ़कर एक वीर और पराक्रमी हुए।

जिसके बलपर सगर ने एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की। राजा सगर का आदेश पाकर उनके साठ सहस्त्र पुत्र (सैनिक) यज्ञाश्व को खोजने निकल पड़े। उन्होने सम्पूर्ण पृथ्वी एक कर डाली, पर कही पर यज्ञाश्व का पता न चला। असफल हो वे पुन: अयोध्या लौट आये। राजा का पुनः आदेश हुआ। पाताल लोक में खोजकर देखो। पाताल लोक में खोजते-खोजते सहसा सगर पुत्रो को मानों अमृत कलश मिल गया हो। उन्होनें देखा निविड़, शांत और पवित्र स्थान पर एक दिव्यदर्शी साधु अपनी साधना में लीन है।

संसारिक सगर पुत्र को ऐसा आभास हुआ, यज्ञाश्व चोर युद्ध करने के भय से समाधि लगाने का ढोंग कर रहा है। भला उन्हे क्या पता था कि यह साधु साक्षात् वासुदेव है। सगर पुत्रो ने मुनि को अश्व चोर समझ कर नानाबिध अत्याचार किये। मुनि का कोई उत्तर न पा वे क्रोधित हुए। सगर पुत्रो ने महामुनि की समाधि भंग की। हुआ वही जो अभिष्ट था। महामुनि की क्रोधाग्नि ने, साठ सहस्त्र सगर पुत्रो को जलाकर भस्म कर दिया। इधर शोक संतप्त यज्ञकर्ता सगर यज्ञाश्व व अपने साठ हजा पुत्रो को न आता देख और अधिक व्याकुल होने लगे। उन्होने असमञ्जस के पुत्र अंशुमान को यज्ञाश्व व साठ हजार पुत्रो के अनुसंधान का गुरु कार्य दिया। आदेश पाते ही तेजस्वी अंशुमान अपने उद्देशय की पूर्ति के लिए निकल पड़े। अंशुमान अनेक बाधाओं को पारकरते हुए, सैनिको के पदचिह्नों पर चलते-चलते अन्तः पातालपुरी पहुँचे। कपिलाश्रम पँहुचते ही अंशुमान साधना रत कपिल के सामने करवद्ध खड़े रहे। महामुनि का ध्यान भंग होने पर अपना परिचय और आने का उद्देश्य निवेदन किया। अंशुमान के ओज और विनय से ऋषि कपिल प्रभावित हुए और उन्होंने सारी घटना अंशुमान को बता-दिया। यह सब सुनते ही अंशुमान का हृदय व्यथित हो उठा।

अश्रुपूर्ण नेत्रो से अंशुमान ने ऋषि को प्रणाम किया और अपने बन्धुवान्धओं की आत्मा के मुक्ति के लिए उपाय पूछा। ऋषि ने कहा “भस्मराशि मे परिणत साठ हजार पुत्रों की आत्मा के मुक्ति के लिए त्रिलोक तारिणी, त्रिपथगामिनी गंगा का अवतरण आवश्यक है। गंगा की पुण्य वारिधारा ही सगर पुत्रों को मुक्ति के द्वार तक पहुँचा सकती है।” राजा सगर की भार्या सुमति या शैव्या गरुण की सगी बहन थी। इस प्रकार पक्षिराज गरुण ने भी अपने भाजो के कल्याणार्थ पतितपावनी गंगा के अवतरण की बात ही कही। अंशुमान को यज्ञाश्व के साथ अयोध्या पहुँचनेपर राजा सगर ने अपना यज्ञ पुरा किया और अपने जीवन का अवशिष्ट समय गंगा अवतरण के प्रयास में लगा दिया। राजा सगर के बाद उनके पौत्र अंशुमान सन्नासीन हुए। इसके बाद अंशुमान के पुत्र दिलोप भी अपनी सारी ऊर्जा गंगा को मर्त्यलोक मे अवतरण कराने के प्रयास में लगा दिया! अर्थात तीन पुरुपो का कुल समय, गंगा अनयन में ही शेष हो गया। पर वे गंगा को मर्त्यलोक मे लाने मे सफल नहीं हो सके। राजा दिलीप नि:संतान थे।

उनकी दो रानियाँ थी। वंश लोप के भय से दोनो रानियाँ ऋषि और्व के यहाँ शरणापन्न हुई। ऋषि के आदेश से दोनों रानियो ने आपस में संयोग किया जिसके फलस्वरूप एक रानी गर्भवती हुइ। प्रसव के बाद एक मांसपिण्ड का जन्म हुआ जिसका कोई निश्चित आकार न था। कातर रानी पुन: ऋषि अग्नि और्व के यहाँ शरणापन्न हुई। ऋषि के आदेश से मांसपिण्ड को राजपथ पर रखवा दिया गया।

इधर अष्टब्रक मुनि स्नान के बाद अपने आश्रम को लौट रहे थे। अपने समने मांस का पिण्ड फड़कता देखकर क्रुद्ध हुए, उन्होनें सोचा मांसपिण्ड उन्हें चिढ़ा रहा है। मुनि ने क्रोध में आकर कहा, यदि तुम्हारा आचरण स्वभाव सिद्ध हो, तो तुम सर्वांगसुन्दर होओ और यदि मेरा उपहास कर रहे हो तो मृत्यु को प्राप्त हो। मांसपिण्ड ऋषि के वचन सुनते ही सर्वांगसुन्दर युवक मे वदल गया। वह युवक दोनो रानियो के भग संयोग से जन्म लिया था अत: उनका नाम हुआ भगीरथ” ।

भगीरथ अपनी माता द्वारा पूर्वजो की कहानी सुनने का बाद वे स्वयं उनकी मुक्ति के लिए सोच में पड़ गये। एक तरफ संसारिक बन्धन, तथा दुसरी ओर पूर्वजों की मुक्ति का भार किसे चुने? अन्त: उन्होने अपने पूर्वजो को मुक्ति दिलाना ही श्रेष्यकर समझा। और राज्य का भार मंत्रियो पर छोड़ वंश-उद्धार के महत् कार्य मे चलपड़े। गृहत्यागी होकर हिमायल क्षेत्र में जाकर भगीरथ इन्द्रकी स्तुति की। इन्द्र ने गंगा अवतरण में अपनी असमर्थता प्रकट की तथा देवाधिदेव की स्तुति का सुझाव दिया। सौम्य भगीरथ देवाधिदेव को प्रसन्न कर उनकी आज्ञा-से सृष्टिकर्ता को अराधना की। भगीरथ की कठिन तपस्या से प्रजापति प्रसन्न हुए। प्रजापति ने विष्णु का अराधना का सुझाव दिया। इस प्रकार ब्रह्मा-विष्णु और महेश तीनों ही भगीरथ के प्रति संतुष्ट हुए। अन्त: भगीरथ गंगा को संतुष्ट कर मर्त्यलोक मे अवतरण की सम्मति मांग ली। विष्णु ने अपना शंख भगीरथ को देकर कहा शंखध्वनि गंगा को पथ निर्देश करेगी।

गंगा शंख ध्वनि का अनुसरण करेगी। इस प्रकार शंख लेकर आगे-आगे भगीरथ चले और उनके पीछे-पीछे पतितपावनी, त्रिपथगामिनी, शुद्ध सलिला गंगा। ब्रह्मलोक से अवतरण के समय, गंगा साठ हजार योजन विस्तृत सुमेरु पर्वत के मध्य आवद्ध हो गयी। इस समय इन्द्र के अपना गज ऐरावत भगीरथ को प्रदान किया। अहंकारी “गजराज”. ऐरावत ने सुमेरु को चार भागों में विभक्त किया-जिससे गंगा की चार धराए प्रवाहित हुई। ये चारों धाराये बसु, भद्रा, श्वेता और मन्दाकिनी के नाम से जानी जाती है।

बसु-नाम की गंगा पूर्व सागर, भद्रा-नाम की गंगा उत्तर सागर, श्वेता-नाम की गंगा पश्चिम सागर और मन्दाकिनी-नाम की गंगा अलकनन्दा के नाम से मर्त्यलोक में जानी जाती है। सुमेरु पर्वत से निकल कर गंगा कैलाश पर्वत होती हुई प्रबल वेग के साथ भू-पृष्ठ पर अवतरित होने लगी। उसी समय महादेव ने अपनें जटा-जाल में गंगा को धारण किया। इस प्रकार गंगा अपने अहंम् भाव के चलते बारह वर्षों तक शंकर के जटाजाल में जकड़ी रही। भगीरथ अपनी साधना के बलपर शिव को प्रसन्न करा गंगा को मुक्त कराया। शिव ने गंगा की धारा का अपनी जटा को चीर कर बिन्ध-सरोबर में उतारा। यहाँ सप्तऋषिओं ने शंखध्वनि की! गंगा सात भागों में विभक्त हो चली। मूलधारा भगीरथ के साथ चली। वह स्थान हरिद्वार के नाम से जाना जाता है। हरिद्वार के बाद गंगा की मूलधारा भगीरथ का अनुसरण करतें हुए त्रिवेणी, प्रयागराज, वाराणसी होते हुए जंहु मुनि के आश्रम पहुँची। भगीरथ की बाधाओ का यहा भी शेष न था। संध्या समय भगीरथ ने वही विश्राम करने को सोची, परन्तु विधाता ने ऐसा रचा ही कहाँ ? संध्या आरती के समय जंहु मुनि के आश्रम में शंखध्वनि हुई। शंखध्वनि का अनुसरण कर गंगा ने जंहु मुनि का आश्रम बहा लेगयी। ऋषि ने विचति हाकर अपने तेज के बलपर गंगा को एक चुल्लु में ही पान कराया।

भगीरथ आर्श्यय चकित हो प्रार्थना करने लगे। गा-मुनि के कर्ण-विवरो से अवतरित हुयी। गंगा यहाँ जहावी के नाम से प्रसिद्ध हुयी। कौतुहलवश जंहु मुनि की कन्या पद्मा ने भी शंखध्वनि की। पद्मा वारिधारा में परिणत हो गंगा से साथ चली मुर्शिदाबाद के धुलियान के पास भगीरथ दक्षिण मुखी हुए। गंगा की वारिधारा पद्मा का संग छोड़कर शंखध्वनि के आकर्षण से दक्षिण मुखी हुयी। पद्मा पूर्वकी और बहते हुए वर्तमान बंगलादेश को धन-धान्य से परिपूर्ण की। दक्षिण-गामिनी गंगा भगीरथ के साथ महामुनि कपिल के आश्रम तक पँहुची।

ऋषि ने वारि को अपने मस्तक से लगाया और कहा हे माता। पतितपावनी क्रलिकलुष-नाशिनी गंगे। पतितों के उद्धार के लिए ही तुम्हार मर्त्यपर अवतरण हुआ है। अपने कर्मदोष के कारण ही सगर के साठ हजार पुत्र क्रोधाग्नि का शिकार हुए है। तुम अपने पारस रूपी पवित्र जल से उन्हे मुक्ति प्रदान करो माँ। वारि धारा आगे बढ़ी। भष्मराशि प्लावित हुआ। भगीरथ का कर्मयज्ञ सम्पूर्ण हुआ। धन्य हुआ “इश्वांकुवंश”। धन्य हुयी “भारतभूमि”। वारिधारा सागर में समाहित हुयी।

गंगा और सागर का यह पुण्य मिलन “गंगासागर” के नाम से सुप्रसिद्ध हुआ। आज भी महामुनि कपिल की प्रतिमा सागर की फेनिल-नील-जलराशि उस विरल मिलन की स्मृति को संजोये हुए है। आज गंगासागर एक प्रत्यन्त ग्राम नहीं, भारतीय संस्कृति का संगम स्थल है।

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17- सूरदास जी का पद गायन

सूरदास जी से ईर्ष्या करने वाले लोग सूरदास जी भगवान के परम भक्त थे, कृष्ण भक्ति उनके रोम-रोम पर विद्यमान थी वह पृथ्वी के महान विभूति और एक महान कवि थे ।  ब्रज में निवास करते थे वहीं पास में ही भगवान श्री कृष्ण का मंदिर था तो वे रोज उस मंदिर में जाते और प्रभु का जैसा उस दिन का श्रृंगार होता वैसा ही वे पद बनाकर गाते थे उनकी कीर्ति वहां चारों ओर फैलने लगी कुछ व्यक्ति थे वह सूरदास जी से ईर्ष्या करते थे और उन्होंने विचार बनाया कि इसे परेशान किया जाये, उन्होंने कहा यह जो सुन रहे हैं हम कि ये जन्मांध है, सूरदास है जिसे बिल्कुल दिखाई ही नहीं देता वह भगवान के श्रृंगार का आभूषण का कैसे वर्णन कर सकता है ?

हां अब समझ में आया इसने किसी के मुख से सुन लिया होगा कि प्रभु का श्रंगार किस प्रकार करते हैं, उसे ही वह गाता है और दुनिया को पागल बनाता है, वह सूरदास जी से विरोध और ईर्ष्या करने वाले लोग मिलकर योजना बनाई कि आज इसकी परीक्षा लेते हैं, उन सभी ने पुजारी को मना लिया बोला कि आज तुम ठाकुर जी को वस्त्र आभूषण कुछ मत पहनाना फिर देखते हैं उस सूरदास को क्या कहता है, वह पुजारी दूसरे दिन भगवान कृष्ण को वस्त्रआभूषण कुछ नहीं पहनाया और जैसे ही वह सूरदास जी आए और परमात्मा का ध्यान करते गायन किया- आंखों से आंसुओं की झड़ी लग गई ।

अपने पद में उन्होंने कहा- आज हरहिं हम देखे नंगम नंगा प्रभु आप का दिव्य श्रृंगार तो रोज देखता था आज आपको नंगम नंगा देखा । जैसे उन व्यक्तियों ने यह बात सुनी सूरदास जी के चरणों में गिर गये पश्चाताप करने लगे उनसे क्षमा मांगने लगे ।

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18- गोपियों का अनंत प्रेम

एक बार की बात है भगवान श्री कृष्ण द्वारिकाधीश बन जब द्वारिकापुरी में थे तब प्रेम की बात आई और प्रभु के मुख से निकल गया कि ब्रज की गोपियों का प्रेम अनंत है ।  रुकमणी आदि रानियां बोलीं क्या प्रभु वे गोपियां हमसे भी ज्यादा आपको प्रेम करती हैं, भगवान ने कहा उनके जैसा प्रेमी कोई नहीं है । रुक्मणी आदि रानी यह बात मानने को तैयार नहीं हुई तब भगवान श्रीकृष्ण ने कहा देवी समय आने दो आपको उनके प्रेम का पता अपने आप चल जाएगा ।  जब कुछ दिन व्यतीत हो गए तो प्रभु ने पेट दर्द का बहाना किया अब रुक्मणी आदि रानियां खूब परेशान कई हकीम वैध आए पर प्रभु का पेट दर्द नहीं बंद हुआ, हो भी कैसे औषधि से ठीक, प्रभु तो गोपियों का अनंत प्रेम रुकमणी आदि रानियों के सम्मुख लाना चाहते थे ।

भगवान ने कहा देवी अब एक ही उपाय है जिससे मेरे पेट का दर्द खत्म हो सकता है वह यह है कि आप अपने पैरों के नीचे की मिट्टी मेरे मुख में डाल दो तब मैं स्वस्थ हो जाऊंगा , रुकमणी आदि रानियों ने कहा ना प्रभु यह आप क्या बोल रहे हैं आप हमारे स्वामी हैं हम ऐसा घोर पाप कभी नहीं करेंगी ।

अरे ऐसा करने पर तो हमें करोड़ों वर्षों तक नरक भोगना पड़ेगा, हम यह कार्य कदापि नहीं कर सकती ।

तब भगवान श्रीकृष्ण यही बात एक दूत के द्वारा ब्रज में गोपियों को समाचार भेजवाया जैसे ही गोपियों ने सुना कि हमारे श्यामसुंदर कष्ट में हैं दुखी हो गई और उस दूत की बात सुनकर वे गोपिया तुरंत अपने पैरों के नीचे की मिट्टी उस दूत को देते हुए कहा कि भाई शीघ्र जाओ और यह मिट्टी हमारे श्याम सुंदर को खिला दो जिससे वह सुखी हो जाएं, भले इस कार्य के लिए विधाता हमें लाखों करोड़ों वर्षों तक नर्क में भेजें हमें नर्क जाने से डर नहीं लगता , बस हमारे श्यामसुंदर को कभी कष्ट ना हो । ऐसा अनंत प्रेम जब रानियों ने सुना मन ही मन गोपियों को प्रणाम किया ।

19- दृढ़ विश्वास की अदभुत कहानी

एक वृद्ध माता को पत्थर मिल गया किसी ने कह दिया कि यह भगवान हैं, वृद्धा ने मान लिया उनका नाम रख दिया गोल मटोल भगवान और उन्हें खिलाए बिना खाए नहीं, भोग लगाये, आरती करे, पूजा करे ।  अकेले वह और उसके गोल मटोल, ऐसी दृढ़ निष्ठा उसका अंतिम समय आ गया तो भगवान ने अपने दूतों को भेजा कि उसको हमारे धाम ले आओ,  पार्षद लेने के लिए गए बुढ़िया बोली गोल मटोल चले तो मैं चलूं,  पार्षद बोले वहां यहां से नहीं जा सकते हैं, आप चलो यहां से वहां- यह मिलेंगे , उस बुडिया ने कहा अरे तो मैं क्या करूं बैकुंठ जाकर मेरा गोल मटोल भगवान तो यहीं है ।

भगवान के पार्षदों ने कहा भगवान से जाकर तो भगवान स्वयं आए कहा- मैया चलो बैकुंठ चलें, बुढ़िया बोली– अरे बाबरे बैकुंठ की बात रह्यो तू बोल,
भीतर मेरो सोय रह्यो है ठाकुर गोल मटोल । गोल मटोल भगवान चलें तो मैं चलूं ?
ए भक्तों की अद्भुत कथाएं हैं, भगवान ने कहा चलो तुम्हारे लिए नियम चेंज करके तुम्हारे गोल मटोल को भी ले चलते हैं ।,,, देखो इतना सहज विश्वास या विश्वास का स्थान ही ना हो या फिर इतना विश्वास कि उसके लिए कोई विकल्प ही ना हो । सगुण भगवान के लिए विश्वास, विश्वास का अर्थ है श्वास और वि उपसर्ग लगा है ।  विगतः श्वास, जैसे मुर्दे में श्वास ही नहीं होती, तो विश्वास करना साधारण बात नहीं है यह बड़े-बड़े सूर वीरों का काम है ।

जो मुर्दों की तरह होकर विश्वास कर ले और देखो कितनी अद्भुत बात है जो इतना विश्वास कर सके वह भी मुर्दे का काम है और ज्ञान पाकर भवसागर से तरना भी मुर्दे का काम है ।  नदी में जब डूबता है तो जिंदा आदमी डूबता है मुर्दा कभी नहीं डूबता, मुर्दा हांथ पाव हिलाता ही नहीं है– मस्तराम मुर्दों से बोले हमको कुछ बतलाओगे, मुर्दों में से एक मुर्दा बोला मर जाओ सुख पाओगे-

अवसर है अनमोल काम कुछ ऐसा कर जा

पाकर गुरु से ज्ञान यार मरने से पहले मर जा

अपने घर में बैठ निरंतर नहीं किसी के घर जा सीताराम नाम सुमिरन कर भवसागर से तर जा ।

आध्यात्मिक दृष्टांत कथा,
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दृष्टांत महासागर drishtant mahasagar


20- हास्य-व्यंग्य – सास और बहु

एक गांव की बात है एक घर में जब भी कोई साधु भीख मांगने जाता तो सास रोज मना करती बाबा कुछ नहीं है  जाओ, एक बार वह सास किसी काम से गांव  गई हुई थी घर में बहू थी वह बाबा आया और भीख मांगा तो बहू ने भी कह दिया कि कुछ नहीं है ,, बाबा जाओ वह  जब जाने लगा तो मार्ग में सांस मिली उसने बाबा जी से पूछा  कहां गए थे, बाबा ने बोला तुम्हारे घर,, बोली मिला कुछ बाबा ने कहा नहीं  उसने कहा क्यों,, मना  कर दिया बहु कौन होती है मना करने वाली।  मै करती तो ठीक वो क्यों की तुम चलो भिखारी ने समझा इन दोनों के झगड़े में हमें फायदा होगा वह गया।

सास ने बहु को बहुत डांटा कहा बहू को तूने मना क्यों किया ? बहु ने कहा माताजी रोज आप मना कर देती थी तो  आज मैंने कर दिया, तो सास ने कहा अच्छा जो मैं करूंगी वही तू करेगी मेरी नकल करेगी – मेरी बराबरी करेगी, बहुत डांटा इस प्रकार।  वह बाबा इंतजार में बैठे वही की सास कब देगी भीख ,, यहां डाटने के बाद सास  बहू से  बोलती है की बहू अरे मना करती तो मैं करती तूने क्यों किया , सांस ने भिखारी से कहा बाबा जाओ मैं मना कर रही हूं कुछ नहीं है जाओ।

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21- हास्य कहानी- हम विचार नहीं कर पाते

एक व्यक्ति ने अपने मित्र से कहा हमें नौकरी दे दो दूसरे व्यक्ति ने कहा हमें तो नौकर की ही जरूरत है उसी की तलाश है तुम ही मिल गए हो तो ठीक है । व्यक्ति ने कहा काम क्या करना पड़ेगा उस मित्र ने कहा और तो हम सब कर लेते हैं, सोच विचार में थोड़ा कच्चे हैं, हम विचार ही नहीं कर पाते तुम विचार करके बताया करो हम काम किया करेंगे । व्यक्ति ने कहा ठीक है कितने रुपए महीने में दोगे उसने कहा पांच हज़ार रुपये उस व्यक्ति ने कहा ठीक है , पर उस उसने नौकरी देने वाले मित्र से पूछा तुम क्या करते हो, उसने बोला हम खुद नौकरी करते हैं । पूछा तुम्हें कितना मिलता है , कहा हमें ढाई हजार मिलता है । तब वह व्यक्ति अपने मित्र से बोला जब तुम्हें ही ढाई हजार मिलते हैं तो हमें तुम पांच हजार कहां से दोगे बताओ, उसने कहा तुम सोचो इसीलिए तो तुम्हें रखा है, अब विचार करो ।

एक मुक्के में चौंसठ दांत गिर जायेंगे । दो आदमियों में झगड़ा हुआ एक ने कहा ऐसा तमाचा मारेंगे कि तुम्हारी बत्तीसो दांत नीचे गिर जाएंगे, तो दूसरा बोला कि हम ऐसा तमाचा मारेंगे कि चौंसठो दांत नीचे गिर जाएंगे । बगल में खड़े एक तीसरे आदमी ने कहा चौंसठ दांत होते भी नहीं है तो कैसे चौंसठ दांत नीचे गिरेंगे, तो उस आदमी ने कहा हमें पता था कि हम दोनों के बीच में तुम तीसरे जरूर बोलोगे तो बत्तीस दांत इसके और बत्तीस दांत तुम्हारे चौंसठ दांत नीचे गिरेंगे एक ही हाथ में । तो अभिमानी आदमी कभी अपनी गलती नहीं मानता ।

22- चिरंजीव महर्षि- लोमश

ये चिरंजीव महर्षि हैं, शरीर पर बहुत से रोम होने के कारण इनको लोमश कहते हैं ।  द्विपरार्ध व्यतीत होने पर जब ब्रह्मा की आयु समाप्त होती है तो इनका एक रोम गिरता है । यद्यपि ब्रह्मा जी की आयु बहुत बड़ी है । इनका एक कल्प (हजार चतुर्युगी) का दिन होता है, और इतनी ही बड़ी रात्रि भी होती है ! इस प्रकार दिन दिन का महीना और बारह महीने के साल के हिसाब से ब्रह्मा जी की आयु सौ बरस की है । लेकिन श्री लोमस जी की दृष्टि में मानो रोज-रोज ब्रह्माजी मरते ही रहते हैं । एक बार तो अपनी दीर्घायुष्यता से अकुलाकर इन्होंने भगवान से मृत्यु का वरदान मांगा । तब प्रभु ने उत्तर दिया कि यदि जल ब्रह्म , की अथवा ब्राम्हण की निंदा करो, तो उस महा पातक से आप भले ही मर सकते हो अन्यथा आपके यहां काल की दाल नहीं गलने वाली है ।

उन्होंने कहा कि अच्छा आश्रम में जाकर मैं वैसा ही करूंगा । मार्ग में इन्होंने थोड़ा सा जल देखा जो कि सूकर के लोटने से अत्यंत गंदला हो गया था । वहीं पर उन्होंने देखा कि एक स्त्री जिसके गोद में दो बालक थे पहले एक बालक को स्तनपान करा कर फिर अपना स्तंन धोकर दूसरे बच्चे को स्तनपान करा रही थी । श्री लोमस जी ने इसका कारण पूछा,  तो उसने कहा कि यह एक पुत्र तो ब्राह्मण के तेज से है और दूसरा नीच जाति के (मेरे पति) से जन्मा है ! अतएव मैंने ब्राम्हणोद्भव  बालक को धोये स्तन का दूध पिलाया है ।

श्री लोमश जी का नियम था कि वह नित्य ब्राह्मण का चरणोदक लेते थे । आज उन्होंने अभी तक नहीं लिया था , दूसरा जल और ब्राह्मण मिला नहीं था ! अतः उन्होंने उसी जल से ब्रह्म वीर्य से उत्पन्न उसी बालक का चरणामृत ले लिया । उसी समय प्रभु प्रगट हो गए, और बोले कि तुमने जब ऐसे जल को भी आदर दिया और ऐसे ब्राह्मण के चरण सरोज की भी भक्ति की तो तुम भला जल या विप्र के निंदक कब हो सकते हो । मैं तुमसे अति प्रसन्न हूं और आशीर्वाद देता हूं कि विप्र प्रसाद से तुम चिरंजीव ही बने रहोगे ।तभी तो कहा गया है कि-

हरितोषन व्रत द्विज सेवकाई । पुन्य एक जग महुँ नहिं दूजा । 

मन क्रम बचन बिप्र पद पूजा ।। [रामायण]

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