bhagwat katha in hindi
भागवत पुराण कथा भाग-15
विपदः सन्तु नः शश्वत्तत्र तत्र जगद्गुरू । भवतो दर्शनं यत्स्यादपुनर्भव दर्शनम् ।।
मुझे जीवन में प्रत्येक पग में विपत्तियों की ही प्राप्ति हो क्योंकि विपत्ति होगी तो आपके दर्शन की प्राप्ति होगी और आपका दर्शन संसार सागर से मुक्त कराने वाला है ।
‘विपदः सन्तु नः शश्वत्तत्र तत्र जगद्गुरो । भवतो दर्शनम् यत्स्यादपुनर्भवदर्शनम् ।।
श्रीमद्भा० १/८/२५
विपत्ति विपत्ति नहीं है संपत्ति संपत्ति नहीं है भगवान का विस्मरण होना ही भगवान को भूल जाना ही विपत्ति है और भगवान का स्मरण करना ही संसार की सबसे बड़ी संपत्ति है परम पूज्य गोस्वामी जी कहते हैं…..
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कह हनुमंत विपति प्रभु सोई । जब तक सुमिरन भजन न होई ।।
विपत्ति वह है जब भगवान का विस्मरण हो जाता है—
सुख के माथे सिल पड़े जो नाम हृदय से जाए ।बलिहारी वा दुख की जो पल पल नाम जपाए ।।
वह सुख किस काम का जिसके आने से भगवान का नाम ह्रदय से चला जाता है उससे अच्छा तो वह दुख है जिसके कारण निरंतर भगवान का जप होता है माता कुंती ने जब इस प्रकार स्तुति की तो भगवान श्रीकृष्ण गदगद हो गए उन्हें अविचल भक्ति का आशीर्वाद दिया और बुआ कुंती की प्रसन्नता के लिए कुछ दिन के लिए और हस्तिनापुर में रुक गए 1
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इधर एक दिन युधिष्ठिर जी को शोक हो गया । धर्मराज युधिष्ठिर के शोक की कथा इस प्रकार है कि युद्धोपरान्त स्वजनों के मारे जाने से युधिष्ठिर पश्चात्ताप से भर गये थे और वे कहने लगे कि हमलोगों ने इस नश्वर शरीर के लिए दोनों पक्षों के अनेक लोगों को युद्ध में मरवा दिया। ऐसा कहकर वह युधिष्ठिर आत्मग्लानि से ग्रसित हो गये थे ।
व्यास आदि ऋषियों ने तथा श्रीकृष्ण ने भी धर्मराज को बहुत समझाया । लेकिन धर्मराज के शोक की निवृत्ति नहीं हो रही थी। इसका कारण था कि श्रीकृष्ण भगवान् चाहते थे कि धर्मराज के मोह एवं शोक का नाश शरशय्या पर पड़े भीष्म पितामह के उपदेशामृत से ही कराया जाय।
आगे एक दिन महाराज युधिष्ठिर नित्य की भाँति कृष्ण भगवान् के दर्शन के लिए उनके पास गये। भगवान् कृष्ण नेत्र बन्द कर ध्यानस्थ थे। भगवान् के नेत्र खुलने पर युधिष्ठिर ने पूछा ‘भगवन! आप अभी किसका ध्यान कर रहे थे। भगवान् ने युधिष्ठिर से अश्रुपूरित नेत्रों से कहा – ‘राजन! शरशय्या पर पड़े भीष्म बड़े ही आर्त्तभाव से मुझे याद कर रहे हैं ।
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अतः मैं भी मन से उन्हीं के पास चला गया था। आगे श्रीकृष्ण भगवान् कहते हैं कि हे युधिष्ठिर ! उन श्री भीष्माचार्य के अन्त का समय आ गया है और अब वे जाने वाले हैं। अतः जो सीखना चाहते हों, उनसे सीख लें । महान योद्धा परमज्ञानी भीष्म के समान धर्म के तत्व को जाननेवाला दूसरा नहीं है।
अतः हे युधिष्ठिर जी! आप भीष्म जी के पास जाकर धर्म के समस्त तत्वों को श्रवण करें। इससे आपके शोक एवं मोह का नाश होगा और सन्देह समाप्त हो जायगा । यहीं संत की भजन की महिमा है कि भगवान स्वयं दर्शन देने आते हैं। –
संत किसे कहते- साधना के द्वारा भगवत प्राप्ति का जो प्रयास करता है, वह साधु हैं या जिसके ग्रन्थ में कहा गया है कि-
‘विपत्ति धैर्यं अथ अभ्युदये क्षमा, सदसि वाक्पटुता,
युद्धि विक्रमः प्रकृतिसिद्धमिदं हि महात्मनाम् ।
यानी साधु पुरुष की वाणी निर्णायक होती है। वह न्याय रूपी युद्ध में शौर्य एवं पराक्रम दिखाते हैं अर्थात विपत्ति में धैर्य, उन्नति में क्षमा, तथा वाणी सत्ययुक्त एवं सत्यनिर्णायक होती है। वे न्यायरुपी युद्ध में शौर्य-पराक्रम दिखाते है क्योकि दुराचारी को दण्ड देना ही उसकी चिकित्सा है। इसलिए साधु पुरुष दुराचारी को बिना दण्ड दिये नहीं छोड़ते। यह सन्तो का स्वभाविक लक्षण है।
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श्रीभीष्म जी बाण शय्या पर भी धैर्य धारण किये हुए हैं तथा बाण शय्या पर पड़े उत्तरायण की प्रतीक्षा कर रहे हैं। भीष्म पितामह युधिष्ठिर जी को देखकर मन ही मन प्रसन्न हुए। वे श्री भीष्म जी इस धराधाम पर सूर्य के उत्तरायण होने तक बाण शय्या पर पड़कर समय की प्रतिक्षा कर रहे थे क्योंकि उनको इतने समय तक शाप के कारण पृथ्वी पर रहने का तय था।
अतः वे अधीर नहीं थे – धीरता धारण किये हुए थे। युधिष्ठिर को धर्मोपदेश देना था इसलिए भी उन्होंने प्राण नहीं त्यागा। स्वर्ग से गिरे देवता के सदृश भीष्म बाण – शय्या पर पड़े हैं। उनके दर्शन हेतु ऋषि मुनि तथा स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण भी अर्जुन के साथ पहुँचे । शास्त्र में मानसिक पूजा, जप का बहुत बड़ा महत्व है।
इधर सभी लोगों ने भीष्म पितामह को प्रणाम किया तो भीष्म पितामह ने भी मन ही मन सबको यथा योग्य व्यवहार किया तथा जब पांडवों पर भीष्म की दृष्टि पड़ी तो उनकी आँखों से आँसू गिरने लगे। भीष्म पांडवों को सम्बोधित कर कहने लगे कि हे पांडवों! आपलोग धर्मात्मा हैं ऐसे धर्मात्माओं को बहुत कष्ट दिया गया।
यह बड़ा आश्चर्य है। काल की गति ऐसी होती है कि सब जानते हुए भी कोई कुछ नहीं कर पाता । काल के विधान को कोई जान नहीं सकता। संसार में सुख-दुःख प्रारब्ध के अधीन हैं पश्चात्ताप नहीं करें। अपने धर्मों का पालन करें। युद्ध में आपके परजिन मारे गये, इसकी भी चिन्ता न करे। यह दैव के अधीन था । मोह से प्रभावित न हो, राजकाज का संचालन करें। मानव को भाग्यवादी बनकर नहीं रहना चाहिए बल्कि धर्म सहित कर्मवादी होना चाहिए। यानी कर्म ही हमारा भाग्य बनता है।
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आगे श्रीभीष्म जी युधिष्ठिर से कहते हैं कि हम और आप इन गोबिन्द कि लीला नहीं जानते । जिस युद्ध के लिए आप पश्चात्ताप कर रहे हैं या अपने को युद्ध में विजयी समझते हैं, वह तो कृष्ण की लीला मात्र थी। श्री कृष्ण भगवान् दूत, मित्र, सारथि बनकर तुम्हारी सहयता की। ऐसा भी अहंकार मत करना कि श्रीकृष्ण केवल पांडव पक्ष को मानते थे बल्कि कौरव पक्ष को भी उतना ही मानत थे।
या स्नेह रखते थे। अपने अनन्य भक्तों पर उनकी विशेष कृपा होती है। मैं तो श्रीकृष्ण के विरोधी पक्ष में था। कृष्ण पर मैंने बाणों की बौछार की थी। लेकिन मेरी अन्तरात्मा कृष्ण के चरणों में थी ।
अब देखिये कि अन्त में दर्शन देने के लिए मेरे पास स्वयं आ गये हैं। जो भक्ति करते हैं एवम् नाम स्मरण करते हुए शरीर को छोड़ते हैं, उन्हें श्री कृष्ण मुक्त कर देते हैं। मैं पहले भी सतत् कृष्ण का स्मरण करता रहा हूँ और अब भी कर रहा हूँ। ये भक्तवत्सल हैं। आगे श्रीभीष्म जी कहते हैं कि-
स देव देवो भगवान् प्रतीक्षतां कलेवरं यावदिदं हिनोम्यहम् ।
प्रसन्नहासारुणलोचनोल्लस- न्मुखाम्भुजो ध्यानपथश्चतुर्भुजो ।।
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हे श्रीकृष्ण प्रभो ! जबतक प्राण नहीं छूटे तबतक चतुर्भुज रूप में मेरे सामने आप विराजमान रहें क्योंकि जिन्होंने संग्राम में मेरी प्रतिज्ञा पूरी की वही गोविन्द आज खड़े हैं। सभी लोग श्रीकृष्ण को दो भुजावाले रूप में देख रहे हैं लेकिन श्रीभीष्म जी कृष्ण को चतुर्भुज स्वरूप में दर्शन कर रहे हैं ।
उसी समय धर्मराज युधिष्ठीर ने भी श्रीभीष्माचार्य जी से शान्ति के लिए उपदेश देने का अनुरोध किया तो श्री भीष्माचार्य ने वर्णधर्म, आश्रमधर्म, भागवतधर्म, स्त्रीधर्म अनेक धर्म कहे।
फिर भीष्माचार्य ने कहा कि हे पांडवों यह मनुष्य अपने किये हुये कर्मों को ही भोगता है। अतः हे पांडवों! मैं तुम्हें एक प्राचीन कथा सुना रहा है। वह प्राचीन कथा है कि प्राचीन काल में एक गौतमी नाम की साध्वी ब्राह्मणी के एकलौते पुत्र को सर्प ने डँस लिया था। वह ब्राह्मणी अपने पुत्र के शोक में रो रही थी।
उसी समय एक सँपेरे ने उस सर्प को पकड़कर पूछा कि तुने इस ब्राह्मणी के पुत्र को क्यों काटा ? सर्प ने कहा कि मैंने मृत्युदेव की आज्ञा से ऐसा किया।
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फिर मृत्यु देव ने कहा कि मैंने काल की आज्ञा से ऐसा किया। फिर काल ने कहा कि मैंने यमराज की आज्ञा से ऐसा किया । फिर यमराज ने कहा कि मैंने चित्रगुप्त की आज्ञा से ऐसा किया, फिर चित्रगुप्त ने कहा कि मैंने जीवों के कर्म के कारण ऐसा किया । अतः कर्म ही जीव के सुख-दुःख आदि का कारण हैं मानव को अच्छा कर्म करना चाहिए एंव बुरे कर्म का त्याग करना चाहिए । इस प्रकार अनेकों उपदेश धर्मराज को श्री भीष्माचार्य ने दिया।
फिर श्री भीष्म जी युधिष्ठिर से कहते हैं कि हे युधिष्ठिर स्वयं को कर्ता मानकर क्यों व्याकुल हो ? “मैं” को छोड़ दो। बस, शान्ति आ जायेगी। भगवत् इच्छा के बिना एक पत्ता भी नहीं डोलता। कर्तापन को भूल जाओ। तुम्हारा कोई सामर्थ्य नहीं है। अपने एक अंग को भी मनुष्य स्वयं नहीं बना सकता । गीता के उपदेश को स्मरण करो।
अट्ठारह अक्षौहिणी सेना का संहार तुम नहीं कर सकते थे। यह सारी लीला ईश्वर की है। अतः राजा को पाप नहीं करना चाहिये तथा देखना भी नहीं चाहिये एवं पापी का साथ भी नहीं देना चाहिये । इस उपदेश को सुनकर धर्मराज का संताप समाप्त हो जाता है।
परंतु यह सुनकर द्रौपदी हँस पड़ी। द्रौपदी ने जब पुछा कि हे दादा ! आपने जानकर भी वह पाप क्यो किया तब भिष्माचार्य ने कहा हे बेटी ! पापी दुर्योधन के अन्न को खाने के कारण हमसे वह पाप हुआ कि पापी के साथ रहकर पाप देखते रहा फिर भी पाप रोक नहीं सका।