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भागवत पुराण कथा भाग-8
किसी के गुण-दोष की चिन्ता मत करें क्योंकि पुत्र का पहला धर्म है कि पिता की उचित आज्ञा का पालन, दूसरा पिता की मृत्यु के बाद श्राद्ध करना, न केवल ब्राह्मणों को बल्कि सभी जाति के लोगें को भूरि-भूरि भोजन यानी तबतक खिलाना जबतक खानेवाला अपने दोनों हाथों से पत्तल को छापकर भोजन करानेवाले को रोक न दे।
और तीसरा कार्य है- गया में पिंडदान एवं तर्पण कार्य करना परन्तु ये तीनों लाभ आत्मदेवजी को धुंधकारी से नहीं मिला। गोकर्णजी कहते हैं कि हे पिताजी – इस नश्वर शरीर के मोह को त्याग कर भक्ती करते हुये वैराग से रहकर साधु पुरुषों का संग करते हुये प्रभु को भजे ।
देहेऽस्थिमांसरुधिरेऽभिमतिं त्यज त्वं जायासुतादिषु सदा ममतां विमुंच । 1
पश्यानिशं जगदिदं क्षणभंगनिष्ठं, वैराग्यरागरसिको भव भक्तिनिष्ठः ।।
श्रीमद् भा० मा० ४/७६
धर्मं भजस्व सततं त्यज लोकधर्मान् सेवस्व साधुपुरुषाञ्जहि कामतृष्णाम् ।
अन्यस्य दोषगुणचिन्तनमाशु – मुक्त्वा सेवाकथारसमहोनितरां पिब त्वं ।।
श्रीमद् भा० मा० ४/८०
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हे पिताजी यह शरीर जो हाड़, मांस, रक्त, मज्जा आदि से बने है इसके प्रति मोह को त्यागकर एवं स्त्री पुत्र आदि के मोह को भी छोड़कर इस संसार को क्षणभंगुर देखते जानते हुए वैराग्य को प्राप्त कर भगवान की भक्ति में लग जायें ।
पुनः संसारीक व्यहारों को त्यागकर निरन्तर धर्म को करते हुए कामवासना को त्यागकर साधुपुरुषों का संग करे एवं दुसरे के गुण दोषों की चिंता को त्याग करते हुए निरन्तर भगवान की मधुरमयी भागवत कथा को आप पान करें।
इसप्रकार गोकर्ण जी ने उपरोक्त श्लोको के माध्यम से अपने पिताजी को समझाया तो वह आत्मदेवजी जंगल में जाकर भजन करके परमात्मा को प्रप्त किये। परंतु वही आत्मदेवजी ने प्रारम्भ में सन्यासी महाराज का आज्ञा नहीं माने तो संपती एवं यश को समाप्त करके भारी कष्ट को सहे। इसलिए इस कथा से उपदेश मिलता है कि साधु-महात्माओं के वचनों को, उनके उपदेशों को मानना चाहिए। अन्यथा आत्मदेव जैसा कष्ट उठाना पड़ता है।
धुंधुकारी की मुक्ति के लिए गोकर्ण का प्रयास
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गोकर्णजी का उपदेश है कि भागवतपुराण के दशम स्कन्ध का पाठ किया जाए तो आत्मदेव जैसा आज भी मुक्ती मिलती है। अतः भगवत भक्तो को शास्त्रों की कथाओं को सुनकर अगली पीढ़ी हेतु उचित-अनुचित का विचार कर किसी कार्य का संकल्प और विकल्प करना चाहिए। ऋषियों ने “जीवेम शरदः शतम्”, “पश्येम शरदः शत्म’ का उद्घोष किया है।
सौ वर्ष जीयें, सौ वर्ष देखें। लेकिन संसर्ग दोष, पर्यावरण दोष से सौ वर्ष जीने एवं सौ वर्ष तक देखने की कामना पूर्ण नहीं होती। आयु सौ वर्ष तक नहीं पहुँच पाती। खेती, व्यापार नौकरी, अध्ययन अध्यापन करते हुए भगवान् का भजन करना चाहिए।
ईश्वर का भजन करने वाले यदि मरते समय भगवान को याद नही कर पाते तो श्री कृष्ण भगवान कहते है कि उन्हें मै स्वयं याद करता हूँ एवं परमगति को प्राप्त कराता हूँ। जो भगवान् को भजता है, उसे भगवान् भजते हैं, और उनका उद्धार करते हैं। यह अकाट्य है, इसलिए स्वस्थ शरीर द्वारा भगवान् का भजन अवश्य करना चाहिए।
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आत्मदेवजी वन में जाकर भगवान् की शरणागति की और श्रीगोकर्ण द्वारा कहे गये उपदेश का पालन करके श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्ध का पाठ करते हुए देह को त्याग कर भगवान् श्रीकृष्ण को प्राप्त किया ।
इधर धुंधुकारी ने धन के लोभ में अपनी माता धुंधली को खूब पीटा और उसने पूछा कि धन कहाँ छिपाकर रखा गया है यह बता दो नहीं तो हत्या कर दूँगा । धुंधली भय से व्याकुल होकर रात में घर से भाग गयी और अंधेरे की वजह से एक कुएँ में गिरकर मर गयीं। उसे अधोगति प्राप्त हुई।
इधर वह गाय के पुत्र गोकर्णजी को अपने कानों से केवल भगवत् भजन सुनना ही अच्छा लगता था । पिताजी को वन में जाकर भजन करने की सलाह देकर वे स्वयं तीर्थों के भ्रमण में चले गये थे। अब घर पर धुंधकारी अकेले रह गया था। वह जुआ, शराब और वेश्याओं के साथ जीवन बिताने लगा । पाँच वेश्याओं को उसने अपने घर ही रख लिया था।
वह चोरी से धन लाकर वेश्याओं के साथ रमण करता था । वेश्याएँ तो केवल धन के लोभ से धुंधुकारी के घर आयी थीं। एक दिन धुंधुकारी ने बहुत से आभूषण चोरी कर लाया। राजा के सिपाही चोरी का पता लगाने के लिए छानबीन करने लगे। वेश्याओं ने सोचा कि धुंधुकारी की हत्या कर सारा धन लेकर अन्यत्र चली जायें ।
एक रात सोये अवस्था में वेश्याओं ने धुंधकारी के हाथ पैर बांध दिया और वे गले में फंदा डालकर उसे कसने लगीं । धुंधुकारी के प्राण निकलते नहीं देख उन सबने उसके मुँह में दहकते आग का अंगारा ढूँस दिया ।
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सुधामयं वचो यासां कामिनां रसवर्धनम् । ह्रदयं क्षुरधराभां प्रियः के नामयोषिताम् ।।
स्त्रियों की वाणी तो अमृत के समान कमियों के हृदय में रस का संचार करती है किंतु ह्रदय छूरे की धार के समान तीक्ष्ण होता है भला इन स्त्रियों का कौन प्यारा होता है अन्त में धुंधुकारी तड़प-तड़प कर कष्ट सहकर मर गया। वेश्याओं ने वहीं गड्ढा खोदकर धुंधुकारी की शव को गाड़ दिया और ऊपर से मिट्टी से ढंक दिया।
सारे आभूषण एवं सम्पत्ति लेकर वेश्यायें वहाँ से अन्यत्र चली गयीं । धुंधुकारी जैसों का ऐसा ही अन्त होता है। धुंधुकारी के बारे में कुछ दिन तक किसी ने पूछताछ नहीं की। समय बीतता गया। पूछताछ करने पर वेश्याएँ बता देती कि वह कहीं कमाने चला गया है, एक वर्ष में आ जायेगा । मृत्यु के बाद धुंधुकारी बहुत बड़ा प्रेत बन गया ।
वह वायु रूप धारण किये रहता था । भूख-प्यास से व्याकुल होकर चिल्लाता और भटकता रहता था। धीरे-धीरे उसकी मृत्यु की बात लोगों को मालूम हो गयी। गोकर्णजी तीर्थयात्रा से लौटकर घर आये तो कुछ दिनों के बाद धुंधुकारी की मृत्यु की बात उन्हें भी मालूम हो गयी। गोकर्ण ने धुंधुकारी को अपना भाई समझ घर पर श्राद्ध किया ।
गया में पिण्डदान एवं तर्पण किया। प्रेतशिला गया में प्रेत योनि का श्राद्ध होता है। धर्मारण्य में भी पिण्डदान किया जाता है। अतः पितरों को सद्गति के लिए सही कर्मकांडी से पिण्डदान कराना चाहिए । गोकर्ण द्वारा श्राद्धकर्म करने के बाद भी धुंधुकारी की प्रेतयोनि नहीं बदली । एक दिन गोकर्णजी अपने आंगन में सोये थे।
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धुंधुकारी बवंडर के रूप में आया । वह कभी हाथी, कभी घोड़ा और कभी भेंड़ का रूप बनाकर गोकर्ण के पास खड़ा हो जाता। गोकर्ण ने धैर्य से पूछा- “तुम कौन हो ? प्रेत हो, पिशाच हो, क्या हो ? वह संकेत से बताया कि इसी स्थान पर मारकर उसे गाड़ा गया है।
अन्यत्र ग्रन्थों में ऋषियों द्वारा कहा गया है कि गीता के ११वें अध्याय के ३६वें श्लोक का मंत्र सिद्ध कर एक हाथ से जल लेकर मंत्र पढ़कर प्रेतरोगी पर छींटा जाय तो अवरूद्ध पाणीवाला प्रेतरोगी बोलने लगता है। गोकर्ण ने भी मंत्र पढ़कर जल छिड़क दिया। जल का छींटा पड़ने से प्रेत धुंधुकारी बोलने लगा। उसने कहा- ”
अहं भ्राता तवदीयोऽस्मि धुंधुकारीतिनामतः स्वकीयेनैव दोषेण ब्रह्मत्वं नाषितं मया‘।
मैं आपका भाई धुंधुकारी हू, अपने ही पाप-कर्म के कारण आज इस योनी को प्राप्त किया हू। वह धुंधकारी की व्यथा को सुनकर गोकर्ण रो पड़े। उन्होंने पूछा कि श्राद्ध करने के बाद भी तुम्हारी मुक्ति क्यों नहीं हुई तो धुंधकारी ने बताया कि मैंने इतने पाप किए हैं कि सैंकड़ों श्राद्ध से भी मेरा उद्धार नहीं हो सकता।
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उसने कोई दूसरा उपाय करने की बात कही। गोकर्ण ने कहा- ‘दूसरा उपाय तो दुःसाध्य है। अभी तुम जहाँ से आये हो वहाँ लौट जाओ। मैं विचार करके दूसरा उपाय करूँगा।’ विचार करने पर भी गोकर्ण को कोई भी उपाय नहीं सूझा । पंडितों ने भी कोई राह नहीं बतायी। फिर कोई उपाय न देख गोकर्ण जी ने सूर्यदेव की आराधना करते हुए सूर्य का स्तवन कर सूर्य से ही धुंधुकारी की मुक्ति हेतु प्रार्थना की।
तुभ्यं नमो जगत्साक्षिन् ब्रूहि मे मुक्तिहेतुकम् ।
सूर्य ने कहा कि भागवत सप्ताह के पारायण से ही मुक्ति होगी और दूसरा कोई उपाय नहीं है। इस प्रकार श्रीगोकर्ण ने स्वयं भागवत कथा का सप्ताह पाठ शुरू किया। शास्त्र वचन है कि स्वयं से कोई धार्मिक अनुष्ठान करने या करवाने पर फल अच्छा होता है। गोकर्ण द्वारा भागवत सप्ताह पारायण का आयोजन सुनकर बहुत लोग आने लगे ।
धुंधुकारी भी प्रेत योनि में रहकर भी कथा श्रवण के लिए स्थान खोजने लगा । वहीं एक बांस गाड़ा हुआ था । वह उसी बांस में बैठकर ( वायु रूप में) भागवत कथा श्रवण करने लगा। पहले दिन की कथा में ही बांस को एक पोर फट गया ।
एवं सप्तदिनैश्चैव सप्तगृन्थिविभेदनम् ।
इसप्रकार प्रतिदिन बांस का एक-एक पोर फटने लगा और सातवां दिन बांस का सातवां पोर फटते ही वह प्रेत धुंधुकारी ने प्रेतयोनि से मुक्ति पाकर और देवता के जैसे दिव्य स्वरूप में प्रकट होकर गोकर्ण को प्रणाम किया। इसप्रकार धुंधुकारी भागवत कथा श्रवण कर भगवान् के पार्षदों द्वारा लाये गये विमान में बैठकर दिव्य लोक में प्रस्थान कर गया ।