shrimad bhagwat puran pdf
भागवत पुराण कथा भाग-10
प्रथम् स्कन्ध प्रारम्भ
भागवत यानी भक्तों की कथा कही गयी है। कथा कल्पवृक्ष के समान मनुष्य के सभी मनोरथों को पूर्ण करनेवाली है। इस भागवत पुराण में १२ स्कन्ध ३३५ अध्याय एवं १८००० श्लोक हैं ।
इस भागवत के उपदेश को श्री देवर्षि नारदजी ने भगवान् के अंशावतार श्रीव्यास जी को दिया, जिसको श्रीव्यास जी ने श्री शुकदेवजी एवं राजा परीक्षित् के संवाद के रूप में प्रस्तुत किया एवं इसी कथा को पावन देवभूमी नैमिषारण्य में मैं ( श्री सूतजी) अठासी हजार संतों सहित श्रीशौनक जी को सुनाउँगा ।
इस वह पावन श्रीमदभागवत कथा की रचना करते समय श्री व्यास जी ने ग्रन्थ की निर्विघ्न समाप्ति हेतु सर्वप्रथम मंगलाचरण के द्वारा सत्यस्वरूप भगवान को ध्यान तथा प्रणाम करते हैं।
जन्माद्यस्य यतोऽन्वयदितरतश्चार्थेष्वभिज्ञः स्वराट् ।
तेने ब्रह्म हृदा या आदिकवये मुह्यन्ति यत्सूरयः ।।
तेजोवारिमृदां यथा विनिमयोयत्र त्रिसर्गोऽमृष ।
धाम्ना स्वेन सदा निरस्तकुहकं सत्यं परं धीमहि ।।
श्रीमद् भा० १/१/१
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“जिन भगवान् से विश्व की उत्पत्ति, पालन, संहार एवं मोक्ष की प्राप्ति होती है, एवं जो सभी पदार्थों में रहते हैं तथा असत् पदार्थों से अलग हैं और जो चेतन एवं स्वयं प्रकाशित हैं यानी, जिनका आकाश आदि कार्यों में अन्वय एवं अकार्य आदि से व्यतिरेक है। जो सर्वज्ञ – सर्वशक्तिमान् एवम् प्रकाश स्वरूप हैं।
जिन्होंने अपने संकल्प मात्र से ब्रह्माजी को वेद का उपदेश देकर ज्ञान कराया था। जिनके विषय में विवेकी विद्वानों को भी मोह (अज्ञान) हो जाता है।
जैसे मरुमरीचिका के समान आगमापायी जगत् भी जिनके आधार से पुर्ण शाश्वत सत्य प्रतीत हो रहा है। यानी सूर्य की किरणों में जल का भ्रम या थल में जल एवं जल में थल का भ्रम ही सत्यवत् प्रतीत होता है एवं जिन परमात्मा में जाग्रत स्वप्न- सुषुप्ति सृष्टि सत्य प्रतीत होती है, जो अपने ज्ञान रूपी प्रकाश से प्रकाशित होते हुए माया से हमेशा मुक्त रहते हैं तथा जो अपने तेज से भक्तों का अज्ञान दूर करते हैं ऐसे प्रभु भगवान् श्रीकृष्ण जो सत्य स्वरूप हैं, उन सत्य का हम यानी वक्ता एवं श्रोता सभी ध्यान करें या ध्यान करते है ।
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इस प्रकार श्रीवेदव्यासजी ने श्रीमद्भागवत की रचना करते समय भागवत् के प्रधान देवता परमेश्वर का ध्यान करते हुए सत्यस्वरुप परमात्मा के वंदना करके मंगलाचरण के प्रथम श्लोकों को पूर्ण किया । आगे मंगलाचरण के दूसरे श्लोक में कहा गया है कि वह सत्य स्वरूप परमात्मा को धर्म के द्वारा ही प्राप्त किये जा सकते हैं । अतः ग्रन्थ के दूसरे श्लोक द्वारा धर्म के वास्तविक ज्ञान एवं भगवत् प्राप्ति की सम्भावना को व्यक्त की गयी है।
धर्मः प्रेज्झितकैतवोऽत्र परमो निर्मत्सराणां सतां,
वेद्यं वास्तवमत्र वस्तु शिवदं तापत्रयोन्मूलनम् ।
श्रीमद्भागवते महामुनिकृते किं वा परैरीश्वरः,
सद्यो हृद्यवरुध्यतेऽत्र कृतिभिः शुश्रूषूमिस्तक्षणात् ।।
श्रीमद् भा० ०१/१/२
इस श्रीमद्भागवत में भगवान् श्रीमन्नारायण द्वारा संक्षेप में कहे गये तथा वेदव्यास महामुनि द्वारा रचित इस ग्रन्थ में परमधर्म का निरूपण किया गया है। इसमें पवित्र अन्तः करण वाले सज्जनों के जानने योग्य परमात्मा का वर्णन है, जो दैहिक, दैविक एवं भौतिक इन तीनों तापों का नाशक और कल्याणकारक है, अन्य शास्त्रों या साधनों की क्या आवश्यकता है, क्योंकि इसकी इच्छा करने वाले पुण्यात्मा के हृदय में भगवान् स्वयं आकर बन्दी बन जाते हैं।
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अतः भागवत का उपक्रम ( प्रारम्भ ) ही धर्म से किया गया है – जैसे मंगलाचरण के दूसरे श्लोक में ही वह धर्म से उस भागवत् का उपक्रम किया गया है वह है ‘धर्मः प्रेज्झितकैतवोऽत्र तत्क्षणात् ।। तथा इस भागवत का उपसंहार ( समापन ) भी धर्म शब्द से ही किया गया है। जैसे-
नमो धर्माय महते नमः कृष्णाय वेधसे । ब्राह्मणेभ्यो नमस्कृत्य धर्मान् वक्ष्ये सनातनम् ।।
श्रीमद् मा० १२ / १२/१
इस तरह भागवत में धर्म का विशेष रूप से प्रतिपादन किया गया है । अतः प्रश्न होता है कि- तब धर्म क्या है ? श्रीमद् भागवत् में इसका उत्तर है कि जिसका सहारा या आश्रय ले या जिसे ग्रहण कर या जिसका पालन कर मनुष्य संसार – सागर से पार हो जाता है, वह धर्म है। नारद परिव्रजाकोपनिषद् के अनुसार-
धृतिः क्षमा दमो स्तेयं शौचमिन्द्रयनिग्रहः । धी विद्या सत्यमक्रोधो दशकम् धर्मलक्षणम् ।।
धैर्य, क्षमा, दम (इन्द्रिदमन), चोरी का त्याग, पवित्रता, इन्द्रियनिग्रह, धी (बुद्धी), विद्या, सत्य एवं क्रोध का त्याग ये दस धर्म के लक्षण हैं ।
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“ध्रियतेधः पतनपुरुषोऽनेनेति धर्मः या धारणात् धर्मः” ।।
गिरते हुए को बचाने वाला धर्म है या जिसे धारण किया जाये वह धर्म है। उस धर्म के आठ स्तम्भ है- यज्ञ, अध्ययन, दान, तप, धृति क्षमा, सन्तोष, अलोभ । अतः धर्म का त्याग नहीं करना चाहिये क्योंकि इस धर्म से ही मनुष्य की पहचान होती है, जैसे कहा भी गया है-
आहारानेद्रामय मैथुनं च सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम् ।
धर्मो हि तेषामधिको विशेषो धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः ।।
अर्थात् भोजन, शयन, भय, सन्तानोत्पत्ति इन कार्यों को करने में पशु और मनुष्य में बहुत अन्तर नहीं है। अन्तर केवल धर्म का है, जिस धर्म से मनुष्य की पहचान होती है। अतः धर्म का तत्व बड़ा ही विचित्र है, अत्यन्त गूढ़ है—-
“धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायाम ।
पृथ्वी धर्म पर टिकी हुई है। कहा भी गया है कि— वेद, गौ, ब्राह्मण, सती नारी, सत्यवक्ता, निर्लोभी एवं दानवीर इन सातों पर यह पृथ्वी टिकी हुई है। अतः धर्माचरण सतत् करना चाहिये एवं परोपकार करना चाहिये।
अष्टादशपुराणेषु व्यासस्य वचनम् द्वयम् ।
परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम् ।।
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अठारहों पुराण में श्रीव्यासजी ने दो वचनों को सभी पुराणों का सार कहा है वह दो वचन है कि परोपकार के समान पुण्य नही और दुसरे को कष्ट देने के समान पाप नही है। अन्यत्र ग्रन्थ में भी कहा गया है-
धनानि भूमौ पशवश्च गोष्ठे नारी गृहद्वारि जनाः श्मशाने ।
देहश्चित्तायाम् परलोकमार्गे धर्मानुगो गच्छति जीवमेकः ।।
संसार का सबकुछ यहीं रह जाता है। धन पृथ्वी पर तक, पशुआदि गोशाला – आदि तक, नारी घर के द्वार तक, परिवार के लोग श्मशान तक, शरीर चित्ता जलने तक, केवल जीव का धर्म ही परलोक में जीव के साथ जाता है।
धर्म का कभी भी त्याग नहीं करनी चाहिये एवं अधार्मिक तथा अपूजनीय का संग या सेवा नहीं करनी चाहिये । जहाँ-
अपूज्या यत्र पूज्यन्ते पूज्यानाम् च व्यतिक्रमः । त्रीणि तत्र प्रवर्तन्ते दुर्भिक्षं मरणं भयम् ।।
अपूजनीय की पूजा एवं पूजनीय का अपमान होता है, वहाँ दुर्भिक्ष, अकालमृत्यु एवं भय तीनों का समागम होता है।
इस तरह मंगलाचरण के दूसरे श्लोक में धर्म को कह कर व्यासजी ने धर्ममय परमात्मा का अनुसंधान एवं वर्णन किया है।
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आगे फिर श्रीव्यासजी ने मंगलाचरण के तीसरे श्लोक , भागवत को संसार का सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ बताकर श्रद्धा एवं विश्वास के साथ भागवतरूपी फल के रस को पान करने को बताया ।
निगमकल्पतरोर्गलितं फलम् शुकमुखादमृतद्रवसंयुतम् ।
पिबत भागवतं रसमालयम् मुहुरहो रसिका भुवि भावुकाः ।।
श्रीमद्भा० १/१/३
यह भागवत कथा रूपी फल सभी शास्त्रों का सार है, और शुकदेव रूपी शुक के स्पर्श से और मीठा हो गया। अतः हे रसिकों ! आप रोज-रोज और बार-बार इस कथा का पान करो या भगवत रसिको को रोज-रोज और बार-बार इस कथा का पान करना चाहिये ।
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इस प्रकार इस ग्रन्थ की रचना करते समय ग्रन्थ एवं जगत के मंगल हेतु प्रथम श्लोक के मंगलाचरण में मंगलकामना हेतु सत्यस्वरूप प्रभु को प्रणाम, ध्यान किया गया है एवं दूसरे श्लोक में ग्रन्थ के विषय (धर्म) का निर्देश किया गया है और तीसरे श्लोक में इस ग्रन्थ की महिमा एवं मधुरता को बतलाकर मुनिवर श्री व्यासजी ने आगे की कथा लिखना प्रारम्भ करते हैं।