bhagwat katha hindi book भागवत कथा
“सकलभुवनमध्ये निर्धनास्तेऽपिधन्या, निवसति हृदि येषां श्रीहरेभक्तिरेका।
हरिरपि निजलोकं सर्वथातो विहाय, प्रविशति हृदि तेषां भक्तिसूत्रोपनद्धः।।
श्रीमद् भा० मा० ३/७३
आगे श्रीसुतजी कहते है कि हे ऋषियों ! आपने सुना कि हरिद्वार के आनन्दवन में श्रीनारदजी द्वारा आयोजित भागवत कथा समारोह में भगवान् भी सपरिवार उपस्थित हो गये। सभी लोग जय-जयकार की मंगल ध्वनि कर रहे हैं।
श्रीमद् भा० मा० ३/७३
आगे श्रीसुतजी कहते है कि हे ऋषियों ! आपने सुना कि हरिद्वार के आनन्दवन में श्रीनारदजी द्वारा आयोजित भागवत कथा समारोह में भगवान् भी सपरिवार उपस्थित हो गये। सभी लोग जय-जयकार की मंगल ध्वनि कर रहे हैं।
सभी मंत्रमुग्ध होकर, सुध-बुध खो बैठे हैं। उस समय भगवान् ने सभी भक्तों को वरदान दिया कि आज से भक्ति देवी एक रूप से भक्तों के हृदय में सदा वास करेंगी। श्री नारदजी भागवत कथा सप्ताह की अद्भूत महिमा से चकित हैं कि धूर्त, पापी मनुष्य, कीट, पतंग, पशु-पक्षी सभी पापमुक्त हो गये हैं तथा सबका चित्त शुद्ध हो गया है।
ये मानवाः पापकृतस्तु, सर्वदा, सदा दुराचाररता, विमार्गगाः ।
क्रोधाग्निदग्धाः कुटिलाश्च कामिनः सप्ताहयज्ञेन कलौ पुनन्ति ते।।
श्रीमद्भा० ०४/११
श्रीमद्भा० ०४/११
महापापी जैसे ब्रह्मघाती, गोघाती, विश्वासघाती, मद्यसेवी, गुरूपत्नीगामी वे भी सप्ताहयज्ञ कथा से पवित्र हो सकते हैं। यानी श्री सनत्कुमारजी ने सप्ताह कथा की महिमा बताते हुए आगे कहा कि जो महापापी, कुलकलंकी, क्रोधी, कुमार्गी, कुटिल तथा कामी हैं, उनका पापकर्म केवल सप्ताह भागवत कथा श्रवण करने से समाप्त हो जाता है।
गोघाती, सुवर्ण चुरानेवाले, मदिरा पीनेवाले वगैरह सभी तरह के नीच कर्म करनेवाले व्यक्तियों अथवा अपने पापकर्म को करके मरकर प्रेत बना जीव भी सप्ताह श्रवण से उद्धार पा लेता है। यह कथा सुनकर श्रीनारदजी ने कहा कि आज तक किसी ऐसे प्रेत का उद्धार हुआ है ?अगर उद्धार हुआ है तो उसका नाम क्या था। तब फिर श्री सनत्कुमारजी ने इस संबंध में एक प्राचीन इतिहास सुनाया और कहा कि हे नारदजी !
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गोकर्ण और धुंधुकारी की कथा-
प्राचीन काल में तुंगभद्रा नदी के तट पर अवन्ती या उत्तम नामक एक नगर था। इस नगर में आत्मदेव नामक विद्वान् ब्राह्मण रहते थे। वे आर्थिक दृष्टि से भी सम्पन्न थे। उनकी पत्नी का नाम धुंधली था। आत्मदेव विद्वान्, चरित्रवान्, निगमशास्त्र के वेत्ता, दयालु एवं विनम्र ब्राह्मण थे। लेकिन उनकी पत्नी धुंधली क्रूर, ईर्ष्यालु, पति से बराबर झगड़ा करनेवाली, दुराग्रही थी। वह जो कहती, उसी की पुष्टि पति से कराती।
वह हमेशा तनाव की स्थिति में रहती तथा पति के साथ अपमानजनक व्यवहार करती। हम सभी के शरीर के अन्दर भी हमेशा आत्मा रूपी आत्मदेव एवं बुद्धिरूपी धुंधली वर्तमान हैं। यह धुंधुली बात न मानकर धुंधुली रूपी तर्क-वितर्क के द्वारा अपना ही कार्य इस शरीर से कराती है।
धुंधुली भी अपने पति आत्मदेव से हर हालत में अपनी इच्छा के अनुसार ही कार्य कराती है। आत्मदेव सम्पन्न एवं विद्वान् होते हुए ब्राह्मणधर्म के अनुसार भिक्षाटन से ही जीवन चलाते थे। उनके पास सुख-सुविधा, समृद्धि, विद्वता, कुलीनता सब थी। लेकिन धुंधुली की कर्कशता उनके लिए भारी दुःख का कारण था और प्रतिफल यह की आत्मदेवजी को कोई संतान नहीं थी।
पुत्र नहीं होने से आत्मदेव दुःखी रहते। उनको भारी चिंता सताती। वे बराबर सोचते-उनके धराधाम से जाने पर उनका उत्तराधिकारी कौन होगा ? पितरों को तर्पण कौन करेगा ? निःसन्तान होने के चलते लोग उनपर ताना कसते। इन समस्याओं से उत्पीड़ित होकर आत्मदेव एक दिन आत्महत्या के लिए चल पड़े।
वे वन में एक सरोवर के पास पहुंचे। पानी पीकर वहीं आत्महत्या करने की बात सोचने लगे। तब तक उस सरोवर के पास संध्या वन्दन करने के लिए एक संन्यासी महाराज पहुँच गये। आत्मदेव उनके चरणों में गिरकर अपना दुखड़ा रोने लगे कि उनका दुःख दूर करें अन्यथा वे आत्महत्या कर लेंगे।
संन्यासी महाराज ने उनके दुःख का कारण पूछा तो बोले कि उन्हें पुत्र प्राप्ति का वरदान दें और नहीं तो वे उसी समय सरोवर में डूबकर आत्महत्या कर लेंगे। सन्यासी महाराज के सामने आत्मदेव एक समस्या के रूप में खड़े हो गये।
इन्होनें आत्मदेवजी को उपाय बताया कि आप गृहस्थ आश्रम को छोड़कर सन्यास ग्रहण कर लें। आत्मदेवजी ने निवेदन किया कि गृहस्थ आश्रम का सरस जीवन छोड़कर सन्यास ग्रहण करना उनसे सम्भव नहीं। सन्यास आश्रम नीरस एवं उनके लिए कठिन है।
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सन्यासी महाराज ने आत्मदेव का ललाट देखा और बताया कि अगले सात जन्मों तक आपको पुत्र रत्न पाने या कोई संतान पाने का योग नहीं है। लेकिन आत्मदेव फिर पुत्र प्राप्ति के आशीर्वाद के लिए आग्रह करते रहे और अपनी आत्महत्या के हठ पर अड़े रहे।
सन्यासी महाराज ने कहा कि पुत्र का योग नहीं होने पर साधु-महात्माओं की आज्ञा को त्याग कर यदि किसी को भी जो पुत्र होता है, वह पिता के लिए दुःख का कारण हो जाता है। ऐसे पुत्र से पिता का उद्धार नहीं होता बल्कि कुल का नाश हो जाता है।
लेकिन सन्यासी महाराज के बार-बार समझाने के बाद भी आत्मदेव पुत्र प्राप्ति के आग्रह से नहीं हटे। आत्मदेव ने कहा-
पुत्रादिसुखहीनोऽयं सन्यासः शुष्क एव हि। गृहस्थः सरसो लोकेपुत्रपौत्रसमन्वितः।। श्रीमद्भा०मा० ४/३८
महात्मन! पुत्र आदि का सुख से विहीन यह सन्यास नीरस है तथा गृहस्थ के पुत्र-पौत्र आदि से संपन्न जीवन सरस है। इस प्रकार आत्मदेव पुत्रैषणा के चलते दुराग्रह कर रहे थे एवं सन्यासी महाराज से हर हालत में पुत्र प्राप्ति का आशीष चाहते थे, अन्यथा सरोवर पर आत्महत्या की बात पर अड़े थे। सारी स्थिति जानते हुए भी भावी प्रबल समझकर सन्यासी महाराज ने आत्मदेव को एक आम का फल दिया और पत्नी को खिला देने को कहा।
महात्मन! पुत्र आदि का सुख से विहीन यह सन्यास नीरस है तथा गृहस्थ के पुत्र-पौत्र आदि से संपन्न जीवन सरस है। इस प्रकार आत्मदेव पुत्रैषणा के चलते दुराग्रह कर रहे थे एवं सन्यासी महाराज से हर हालत में पुत्र प्राप्ति का आशीष चाहते थे, अन्यथा सरोवर पर आत्महत्या की बात पर अड़े थे। सारी स्थिति जानते हुए भी भावी प्रबल समझकर सन्यासी महाराज ने आत्मदेव को एक आम का फल दिया और पत्नी को खिला देने को कहा।
आत्मदेवजी ने उस फल को अपने घर लाया। उन्होंने अपनी पत्नी धुंधली को वह फल देते हुए कहा कि भगवान् का नाम लेकर फल खा ले, पुत्र रत्न की प्राप्ति होगी। धुंधली अपने मन में कुतर्क करने लगी। गर्भ धारण करने में तो बहुत कष्ट होगा, कहीं बच्चा पेट में टेढ़ा हो गया तो जान ही न चली जाय। यदि बच्चा हो जायेगा तो उसके पालन-पोषण का बोझ भी आ जाएगा। इससे तो अच्छा है कि वह वन्ध्या ही रहे।
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इसी बीच उसकी छोटी बहन आ गयी, जिसको पहले से ही ४–५ बच्चे थे और वह गर्भवती भी थी। धुंधली ने पति द्वारा संतान प्राप्ति हेतु मिले फल की बात अपनी छोटी बहन को बताया और अपने मन की बात बोली की वह गर्भवती नही होना चाहती। उसकी छोटी बहन ने कहा की मै स्वयं गर्भवती हूँ इसलिए हे धुंधली ! तुम फल खाने एवं गर्भवती होने का नाटक अपने पति से करो और घर में ही रहो और जब मुझे बच्चा हो जायगा तो अपना बच्चा तूझे लाकर के दे दूंगी।
अपने यहाँ कह दूंगी कि मेरा बच्चा गर्भ में ही मर गया। फिर हे धुंधली बहन ! तुम अपने पति से यह कहना है कि मुझे दूध नहीं होता है, इसलिए बच्चे का दूध पिलाने के लिए मेरी छोटी बहन को बुला लें। बदले में आत्मदेवजी मेरे पति को कुछ धन दे देंगे।
बच्चे को मैं तुम्हारे घर में ही रहकर पोषण कर दूंगी। इस प्रकार धुंधली ने अपनी बहन के साथ हुई मंत्रणा के अनुसार आत्मदेवजी से कह दिया कि उसने फल खा लिया है और वह गर्भवती हो गयी है। इधर संन्यासी महाराज से प्राप्त फल को धुंधली ने आत्मदेवजी की गाय को खिला दिया। संन्यासी महाराज के आशीर्वादयुक्त फल खाकर गाय गर्भवती हो गयी।
इधर सात माह में धुंधुली की बहन को बच्चा हुआ जिसे उसने शीघ्र अपनी बहन के पास पहुँचा दिया तथा यह घटना आत्मदेवजी को कुछ भी मालूम नहीं थी। वे पुत्ररत्न पाकर आनन्दित हो गये। धुंधली ने अपनी बहन की मंत्रणा के अनुसार आत्मदेव से कहा कि मुझे बालक को पिलाने हेतु मेरे पास दूध नहीं है। बच्चे के पोषण के लिए उसकी छोटी बहन को बुला लें। यह बच्चे को अपना दूध पिला देगी। बदले में उसके पति को कुछ आर्थिक योगदान कर दिया करेंगे।
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