bhagwat story in hindi भागवत कथा

bhagwat story in hindi भागवत कथा

आप इतिहास पुराण के ज्ञाता हैं तथा श्रीव्यासजी जो रहस्य जानते है, उसे आप भी पूर्ण रूप से जानते हैं। अतः आप कृपा कर हमारी जिज्ञासा शान्त करें-।
१. मनुष्य को अथवा श्री वैष्णव लोगों को भगवान की प्राप्ति के लिए क्या करना चाहिए ?
२. मनुष्य के लिए मुख्य श्रेय का साधन क्या है ?
३. शास्त्रों में जो कुछ वर्णन किया गया है, उसका सार क्या है ?
४. भगवान् देवकी के पुत्र रूप में किस कार्य के लिए अवतीर्ण हुए थे ?
५. भगवान् के अद्भुत चरित्रों के बारे में बतायें जिसे कवियों, ऋषियों ने गाया हैं फिर भगवान् के अवतार की कथाओं को भी सुनाये।
६. यह भी बतायें कि श्रीकृष्ण भगवान् जब अपने धाम को चले गये तब निराश्रय धर्म किसकी शरण में गया ?
 श्रीसूतजी ने ऋषियों के प्रश्नों को सुनकर प्रसन्न होकर सबसे पहले गुरुपुत्र एवं गुरुभ्राता श्री शुकदेवजी को ध्यान करते हुये दो श्लोकों का उच्चारण करके वन्दन किया, फिर सरस्वती एवं व्यासजी को प्रणाम करके फिर श्रीसूतजी शैनकादि ऋषियों के प्रश्नों को सुनकर बहुत प्रसन्न होते हुए बोले कि हे शौनकजी ! यह प्रश्न लोक मंगलकारी है।
ऐसे भगवान् श्रीकृष्ण सम्बन्धी प्रश्नों से लोगों का कल्याण होता है एवं आत्मा को शांति मिलती है, परन्तु यह कार्य तब पूर्ण होता है जब कथा में हम बैठे। कथा सुनने बैठे तो मानव का उद्देश्य पूर्ण हो जाता है। अतः कथा में बैठने के लिए मन का एकाग्र होना चाहिये। भागवत कथा पारायण से अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष की प्राप्ति होती है।

आगे श्री सूतजी ने ऋषियों द्वारा कहे गये प्रश्नों का उत्तर देते हुए बताया कि हे ऋषियों ! श्रीकृष्ण भक्ति सबसे श्रेष्ठ है तथा श्रेयस्कर है। अतः श्री कृष्णभगवान् में अविचल भक्ति करे तो इससे ज्ञान वैराग्य की प्राप्ति होती है।

यानी भक्ति तभी होगी जब ज्ञान और वैराग्य होगा। भक्ति देवी कहीं भी अपने दोनों पुत्रों ज्ञान और वैराग्य के साथ ही रहती हैं। जहाँ श्रीकृष्ण भक्ति होती है-भक्ति वहीं रहती है और वह भक्ति भागवत कथा से प्राप्त होती है। भागवत कथा के बारह स्कन्ध जो हैं उनमें प्रथम स्कन्ध अधिकार लीला है।
दूसरा साधना लीला, तीसरा सर्ग लीला, चौथा विसर्ग लीला है, पांचवाँ स्थान लीला एवं छठवाँ पोषण लीला है, सातवाँ भक्ति लीला, आठवाँ मन्नवन्तर लीला, नौवाँ ईशानुकथा लीला है, दसवाँ निरोध लीला है, ग्यारहवाँ मुक्ति लीला है, बारहवाँ अभय लीला हैं।
 अतः उन ऋषियो के छ: प्रश्नों का उतर देते हुए श्रीसुतजी कहते हैं कि हे ऋषियों !
(1)मनुष्य को अथवा श्री वैष्णव गों को भगवान् की प्राप्ति के लिए भगवान् की शरणागति करना चाहिये क्योकि धर्म का प्रयोजन भगवान के शरणागति से हि पूर्ण होता हैं वह भगवान सबके पति एवं रक्षक भी हैं।
अतः उन श्री परमात्मा की कथा सुनें एवं अराधना भी करें। ऐसा करने से अविचल भक्ति हो जाती है। यही प्रभु प्राप्ति का उपाय है।
(2) यज्ञ, तप, वेदाध्ययन भगवत् प्राप्ति के लिए उपाय हैं या साधन हैं यानी अतः यहीं श्रेय का साधन है।
(3) शास्त्रो में जो कुछ भी वर्णन किया गया है जैसे- यज्ञ, तप, दान आदि ये सभी साधन का सार परमात्मा के श्रीचरणों में प्रीति के लिए ही हैं या शरणागति के लिए हैं यही शास्त्रों का सार है।
(4) वह प्रभु अपनी लीला करने एवं भक्तों को कृतार्थ कर दुष्टों का संहार, धर्म की स्थापना करने के कार्य के लिए ही श्री देवकी के पुत्र श्रीकृष्ण भगवान अवतार लिये थे।
(5) भगवान् ने अनेक अद्भुत चरित्र किये हैं जैसे पूतना-कंस आदि का वध तथा कारागार से गोकुल आदि में पहुँचना एवं गोवर्धन आदि को उठाना, वह भगवान् ने अनन्त अवतार लिया जैसे राम-कृष्ण, वामन, नृसिंह आदि,
(6) जब प्रभु अपने धाम चले गये तो वह धर्म ने एकमात्र भागवत कथा में आश्रय लिया। –

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आगे श्रीसुतजी ने कहा कि- वह प्रभु के अनन्त अवतारों में प्रभु के मुख्य अवतार चौबीस हैं, उन चौबीस अवतारों में भगवान की मुख्य दो अवतार जो है वह (क) पहला अवतार है पुरुषावतार-

यथापश्यन्त्यदो रूपमदम्रचक्षुषा सहस्रपादोरुभुजाननाद्भुतम्। 
सहस्रमूर्धश्रवणाक्षिनासिकं सहसमौल्यम्बरकुण्डलोल्लसत् ।।
श्रीमद्भा० १/३/४ 
जिसमें आदि पुरुष भगवान् के नाभि-कमल से ब्रह्मा की उत्पत्ति हुई तथा उनके शरीर के अन्य अवयवों से समस्त लोक की रचना हई है। इसी विशुद्ध सत्वमय भगवान् के स्वरूप को योगिजन ज्ञानचक्षु से दर्शन करते हैं। भगवान् अपने अनन्त पाद, उरू, भुजा, मुख, सिर, कर्ण, नेत्र, नासिकाओं से सुशोभित हैं।
यह अद्भुत रूप अनन्त मुकुटों, आभूषणों एवं कुण्डलों से देदीप्यमान है। इस स्वरूप का ध्यान कर हमलोगों को भगवान् को हाथ जोड़कर नमन करना चाहिए। यानी इसी रूप में भगवान् के नाना अवतार होते हैं और इसी में उनका लय भी होता है।
इसी अंशांश से ब्रह्मा, मरीचि, कश्यप, देवतागण, पशु-पक्षी तथा मनुष्यादि योनियाँ उत्पन्न होती हैं। इसी अंशांश से जो ब्रह्मा, मरीचि, कश्यप, देवतागण तथा मनुष्यादि के रूप से चौबीस अवतार हुए हैं। उन अवतारों के मंगलमय नाम हैं। १. सनकादि महर्षियों का अवतार, २. वराहावतार, ३. नारदावतार, ४. नर-नारायणावतार, ५. कपिलावतार, ६. दत्तात्रेय अवतार, ७. यज्ञावतार, ८. ऋषभदेवावतार, ६. पृथु का अवतार, १०. मत्स्यावतार, ११. कूर्मावतार, १२. धन्वन्तरि अवतार, १३. मोहिनी अवतार, १४. नृसिंहावतार, १५. वामनावतार, १६. परशुरामावतार, १७. व्यासावतार, १८. रामावतार, १६. बलदेवावतार, २०. श्रीकृष्णावतार, २१. हरि अवतार, २२. हंसावतार, २३. बुद्धावतार, २४. कल्कि अवतार। इसके अलावा प्रभु का हयग्रीव का भी अवतार हुआ है। यहाँ पर दस अवतार की गणना (मोहिनी एवं धन्वन्तरि को छोड़कर) करने पर मत्स्यावतार प्रथम तथा रामावतार सातवाँ होता है, परन्तु २४ अवतार की गणना करने पर मत्स्यावतार दसवाँ एवं रामावतार अठारहवाँ होता है।
इस प्रकार इन चौबीसों अवतारों का श्रवण भजन करने से मनुष्य का कल्याण होता है एवं वह दुःख सागर से निवृति पाता है तथा आसक्ति को त्याग कर संसार बंधन से मुक्त होता है। वह बन्धन के कारण मोह एवं आसक्ति ही हैं।
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