श्रीमद् भागवत कथा हिंदी में pdf
दृष्टान्त– एक सेठ थे। उनका लक्ष्य केवल अर्थ अर्जित करना था। लक्ष्मी की कृपा जिसपर होती है वह किसलय युक्त पौधे के समान हो जाता है। सेठजी भी लहलहा रहे थे। वे वृद्ध हो चले थे। संयोगवश व्यापार में घाटा हो गया।
उन्हें चिन्ता बढ़ गयी। अब क्या होगा ? बोल भी नहीं पाते थे, बीमार हो गये। मन ही मन रोते थे। सोचते-सोचते बोलने की क्षमता खो बैठे। मरणासन्न हो गये। पुत्रों ने वैद्य को बुलाया ताकि पिताजी द्वारा कम से कम छिपाकर रखी सम्पत्ति की जानकारी तो मिल जाय।
वैद्यजी ने दवा दी। दवा के प्रभाव से मरणासन्न सेठजी की चेतना जगी। उन्होंने आँखें खोली तो सामने देखा कि बछड़ा झाडू चबा रहा था। वे पुत्रों को इशारा करने लगे, तो पुत्र पास आकर पूछने लगे कि हे पिताजी क्या आज्ञा है। तब सेठजी बोले ‘हमको क्या देख रहे हो, देखो उधर बछड़ा झाडू चबा रहा है और उसके बाद उन सेठ के प्राण पखेरु उड़ गये।
यही आसक्ति है, जो छूटती नहीं परन्तु भगवान् के चौबीस अवतारों के भजन, चिन्तन से आसक्ति छूटती है एवं परमात्मा की कृपा होती है तथा आसक्ति से मुक्ति मिलती है। भागवत में कहा गया है कि देहाभिमानी मनुष्य भगवत्-तत्व को नहीं मानता है।
उस तत्व को नहीं माननेवाले लोग पहले भी थे और आज भी हैं। परंतु निष्कपट रूप से अहम् छोड़ने पर भगवान् की कृपा होती है। परमात्मा मनुष्य के अहंकार का भोजन करते हैं। अहंकार त्यागकर शरणागति करनेवाले का भगवान् उद्धार कर देते हैं।
शरणागति करनेवाले पर भगवान् की साक्षात् कृपा हो जाती है। अतः भगवान् श्रीवासुदेव में निष्ठा करनी चाहिए। यह भागवत पुराण सूर्य के सदृश है। । यह धर्म, अर्थ काम, मोक्ष देनेवाला है। वह भगवान श्रीवासुदेव को प्राप्त कराने के लिए ही एक समय श्रीशुकदेवजी महाराज ने राजा परीक्षित को भगवत् स्वरूप श्रीभागवत की कथा सुनायी थी।
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आगे शौनकजी ने सूतजी से कहा की हे सुतजी ! जो कथा श्रीशुकदेवजी ने गंगा तट पर शुकताल में राजा परीक्षित् को सुनायी थी, वही कथा सुनायें तथा यह भी बतलायें कि वह भागवत कथा किस कारण से, किस स्थान पर और क्यों सुनायी गयी एवं किस भावना से प्रेरित होकर व्यासजी ने भागवत पुराण की रचना की ?
आगे श्री सूतजी ने कहा कि हे शौनक जी! वे व्यास नन्दन श्री शुकदेवजी समदर्शी थे, योगी थे। योग का अर्थ संयोग होता है। परमात्मा से संयोग कराने की क्रिया को योग कहते हैं।
वह योगी श्रीशुकदेवजी जन्म के बाद यज्ञोपवीत संस्कार से पूर्व ही सबकुछ त्यागकर वन में चले गये थे और वे अपने प्रभु की ध्यान में वहाँ लीन हो गये। ऐसे शुकदेव जी के समान वक्ता एवं परीक्षित् के समान श्रोता होना भी कठिन है।
दोनों के जन्म एवं कर्म आश्चर्यजनक हैं। शुक के साथ देव हैं। अतः उनकी वाणी मीठी है और उसमें रस भरा रहता है। परीक्षित् परमात्मा की इच्छा पर चलनेवाले थे तथा वे रात दिन परमात्मा का चिन्तन करनेवाले थे। वे भागवत कथा सुनने को लालयित रहते थे। दोनों के जन्म-कर्म अपूर्व हैं।
आगे श्रीसुतजी ने उन श्रीशुकदेवजी एवं अपने पुज्य गुरुदेव श्रीव्यासजी को प्रणाम करके तथा श्री व्यास जी की पुर्व के दिनचर्या सह घटना को याद कर वह व्यासजी के परोपकार का वर्णन करते हुए कहा कि हे ऋषियों !
एकबार जब पूज्य गुरुदेव श्री व्यास जी सरस्वती नदी के तट पर आचमन आदि करके बैठे थे तो कुछ समय के बाद सूर्योदय होने पर श्री व्यासजी सोचने लगे कि कलि का आगमन होनेवाला है। मनुष्य अल्पायु, अश्रद्धालु एवं नास्तिक होंगे।
अतः जीदों के कल्याण के लिए व्यासजी ने वेद को चार भागों में विभक्त कर दिया। उस समय तक वेद का प्रचार वाणी एवं उपदेश द्वारा ही होता था। परन्तु श्री व्यासजी ने उसे ग्रन्थ के रूप में लिख दिया, जो ऋग्वेद, सामवेद, अथर्ववेद तथा यर्जुवेद हैं।
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इस प्रकार श्री व्यासजी ने चार भागों में वेद को विभक्त कर दिया और चार शिष्यों क्रमशः पैल, वैशम्पायन, जैमिनि और सुमन्त को इनका ज्ञान करा दिया। श्री व्यास जी ने स्त्री एवं शूद्रों आदि के कल्याण के लिए एक लाख वेदों के मंत्रों के भवार्थ को संग्रह कर महाभारत की रचना कर दी।
महाभारत में भी एक लाख श्लोक हैं, जिन पर सबका अधिकार है। जो महाभारत में है उससे अलग दूसरी बात दूसरे शास्त्र में नहीं है। व्यासजी ने १७ पुराण लिख डाले। फिर भी उन्हें आत्मतोष नहीं हुआ। वे सोचने लगे कि मुझसे क्या भूल हुई है जिससे मन में अशान्ति है। किसी कार्य में मन नहीं लगता ऐसी उद्विग्नता क्यों ?
उसी समय उनके पास श्री नारदजी आ गये। श्री व्यासजी नारदजी को देखकर प्रसन्न होकर खड़े हो गये। फिर उनको आसन देकर उन्होंने उनकी अर्चना पूजा की एवं फिर अपनी अशान्ति का कारण पूछा तो नारदजी ने उपदेश देना शुरू किया और कहा कि आप भगवान् की भक्ति प्राप्ति के ग्रन्थ की रचना करें। तब आपको शान्ति मिलेगी।
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